Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 200
________________ 990 प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. श्री जिनेश्वरना श्रागम सिद्धांत जोईने मिथ्यात्वना पांच जेद कहे बे: - जेनी श्रादि पा मी तो यदि मिथ्यात्व कहीए, अने जेनी आदि न पामीए तेतो अनादि मि थ्यात्व कहिये, एवी एवी मिथ्यात्वनी अवस्थानुं स्वरूप दवे कहेंबे ॥ ८ ॥ प्रथम सादि मिथ्यात्वनुं लक्षण कहेतेः -ाथ सादि यथा:॥ दोहराः ॥ - जो मिथ्या दल उपसमे, ग्रंथ नेद बुद्धि होइ, फिरि श्रावे मिथ्यातमें, सादि मिथ्याती सोइ ॥ ए० ॥ अर्थः- जे मिथ्यात्व मोहनीयना दलने उपशमावीने मिथ्यात्व ग्रंथी नेदीने ज्ञाता सम किती थईने पाढा मिथ्यात्वमां खावे ते सादि मिथ्यात्व कहीए. एना मिथ्यात्वमां दवे यदि यई तेथी सादि मिथ्यात्वी कहिये ॥ ० ॥ दवे बीजुं अनादि मिथ्यात्वनुं लक्षण कहे बे::- अथ अनादि मिथ्यात्व कथन:॥ दोहराः ॥ - जिनि गरंथि जेदी नहीं, ममता मगन सदीव; सो अनादि मिथ्या मती, विकल बहिर्मुख जीव. ॥ १ ॥ अर्थः- जे जीवे मिथ्यात्व ग्रंथी जेदी नथी ने सदासर्वदा काल लगण, ममता मांज मग्न रहे, ते जीव अनादि मिथ्यात्वी कहीए; अने जे बहिर्मुख रहे, जेने पर मात्मा द्रव्यनी दृष्टि नथी, ते बहिर्मुख जीव कहीए. ॥ ५१ ॥ ॥ इति श्री बणारसीदास कृत समयसार नाटकने विषे प्रथम गुणस्थानकनो श्र धिकार संपूर्ण थयो. ॥ ॥ दोदराः ॥ - को प्रथम गुण थान यह, मिथ्या मत अनिधान; अलप रूप अब वरनवुं, सासादन गुन थानः ॥ २ ॥ अर्थः-जेनुं मिथ्यात्व एवं नाम बे, ते पेहेलुं गुणस्थानक सूचना मात्र कयुं, हवे संक्षेप मात्र सास्वादन गुणस्थाननुं स्वरूप कहुंनुं ॥ २ ॥ ॥ सवैया इकतीसा ; ॥ - जैसे कोउ बुधित पुरुष खाइ खीर खांड, वोन करे पीछे के लगार स्वाद पावे हे; तैसे चढि चोथे पांचमे के बठें गुनथान, काहु उपसमीको कषा उदे यावे हे; ताहि समे तदां गिरे परधान दशा त्यागी, मिथ्यात व स्थाकों अधोमुख व्हें धावे हे; बीच एक समे वा व आवली प्रमान रहे, सोइ सा सादन गुनथानक कहावे हे. ॥ ३ ॥ अर्थः- जेम कोइ दुधावंत पुरुष बे ते खीरखांड खाय, पढी तेने वमन करे. ते वमननी पछी पण खीरखांमना जोजननो लगारेक स्वाद पामेबे. तेम कोइ जीव ज पशम सम्यक्त्व पामीने चोथे अविरत गुणस्थाने रह्यो बे. अथवा उपशम सम्यक्त्व पामताज सरखो समान पांचमा गुणठायें अथवा बठे गुणठाणे चढ्यो त्यां सम कितनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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