Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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श्री समयसारनाटक.
992
उज्वलता न थई, अने अनंतानुबंधी उपशमि कषाय दतो ते उदय थयो ते सम मां ते त्रणे गुणवाणाथकी ते उपशम सम्यक्त्वनी प्रधान दशा जे श्रेष्ट दशा तेने त्यागी ने फरी मिथ्यात्व दशाने बंधे मुखे उलटो रहेबे, एटले मिथ्यात्व पामतामां सम्यक्त्व बूटतामां वचे एक समयकाल प्रमाणे अथवा उत्कृष्ट व श्रावलिका प्र माणे जे सम्यक्त्व अंश रहेबे तेनेज सास्वादन गुण स्थानक कहिए. ॥ ५३ ॥ ॥ इति द्वितीय गुन थानक समाप्तः ॥
॥ दोहराः ॥ - सासादन गुन थान यह, जयो समापत बीय; मिश्र नाम गुन थान अब, बरनन करों त्रितीय. ॥ ए४ ॥
श्रर्थः - श्रा बीजुं सास्वादन नामे गुणस्थान संपूर्ण थयुं. दवे त्रीजुं मिश्र गुनथा ननुं वर्णन करूं ॥ ५ ॥
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - उपसमी समकिती केतो सादि मिथ्यामती, डुहूनिको मिश्रीत मिथ्यात श्राइ गहे हे; अनंतानुबंधी चोकरीको उदे नांही जामे, मिथ्यात समे प्रकृति मिथ्यात न रहेहे; जहां सद्दहन सत्यासत्यरूप समकाल, ज्ञान जाव मिथ्या जाव मिश्र धारा वड़े हैं; जाकी थिति अंतर मुहूरत वा एक समे, एसो मिश्र गुन थान श्राचारज कहे दे ॥ ए५ ॥
अर्थः- उपशम सम्यक्तित्व मिथ्यात्व, मिश्र, छाने सम्यक्त्व रूप त्रण पुंज करीने ज्यारे मिश्र पुंजमां जीव वर्त्ते, अथवा सम्यक्त्वथी पडीने फरी मिथ्यात्वमां घ्यावी सादिमि यावी थईने मिश्र पुंज उदय थयाथी मिश्रमां वर्त्ते, ए बेउने मिश्र गुण स्थानक क हिये, केमके मिथ्यात्व सम्यक्त्व थको वर्त्ते बे. जेथी संसार अनंतो वधे ते अनंतानुबं धीनी चोकडी कहिए, तेनो जेमां उदय नयी अने मिथ्यापथुं शमे तथा उपशमेबे, त्यां मिथ्यात्वनी प्रकृतिनो उदय रहेतो नथी. ज्यां समकाले सत्यासत्यरूप श्रद्धा बे, एटले श्रद्धामां साधुं खोटुं बेज बे, तिदां ज्ञान जाव बे, ते मिश्र धारामां वहे.
नेमियात्व जावपण सम्यक्त्व धाराथी मिश्रित धारा थकी वदेबे. जेनी उत्कृष्टि स्थिति अंतर्मुहूर्त्त कालनी बे, अथवा जघन्य एक समयनी बे. एनुं नाम त्रीजुं मिश्र नामे गुणगाणं श्राचार्यजी कडे. ॥ ५ ॥ ॥ इति तृतीय गुनस्थान समाप्तः ॥
॥ दोहराः ॥ - मिश्र दशा पूरन जई, कही यथा मति जाषि; अब चतुर्थ गुनथान विधि, कहों जिनागम साषि ॥ ए६ ॥
अर्थः- मिश्र गुणवाणानी जेवी दशा बे, ते जेवी पोतानी बुद्धि बे तेवी रीते जा पारूप कही ते संपूर्ण थई, हवे श्री जिनागमनी शाष लईने चोथा सम्यक्त्व गुण गानो विधि कहुं ॥ ८६ ॥
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