Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 190
________________ ७६० प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. लागी ते पुरुष कर्मने चूरण करीने क्रमे क्रमे पूरण थाय ॥ ५६ ॥ जेना घटमां एवी दशा थई रही , ते पुरुष- साधक नाम कहेवाय. जेस दीवानुं अजवाडं थएथी घरमां पण अजवायूँ थाय, तेम शान किया तो मोद साधक , पण ज्ञानक्रियाने ध रतां पुरुष पण साधक थाय ॥ ५७ ॥ कहे ज्ञाननुं फल कहेजेः-श्रथ ज्ञानफल वर्ननः॥ सवैया श्कतीसाः॥-जाके घट अंतर मिथ्यात अंधकार गयो, जयो परगास सु छ समकीत नानकी; जाकी मोह निउ घटी ममता पलक फीटी,जान्यो जिन मरम अवाची नगवानको; जाको ज्ञान तेज वग्यो उदिम उदार जग्यो, लग्यो सुष पोष समरस सुधा पानको, ताही सुविचदन को संसार निकट श्रायो, पायो तिनि मारग सुगम निरवानको ॥ ५ ॥ जाके हिरदेमे स्यादवाद साधना करत, शुफातमाको अनुनौ प्रगट नयो हे; जाकों संकलप विकलपके विकार मिटि, सदा काल एकी जाव रस परिनयो है; जिनि बंध विधि परिहार मोष अंगीकार, ऐसो सुविचार पल सोउ नि दियो है; जाकी ज्ञानमहिमा उदोत दिनदिन प्रति, सोश नवसागर उलंघि पार गयो है ॥ एए॥ अर्थः-जेना घटमां अनादिकालनो मिथ्यात्व अंधकार हतो ते गयो, श्रने शुरू सम्यक्त्व रूप सूर्यनो प्रकाश थयो, राग द्वेष मोह निशा जेनी घटी गई, ममतारूप पलक लागी हती ते फिटि गई, तेथी जिन अवाची नगवाननो एटले सिक स्वरू पनो मर्म पाम्यो, जेनुं ज्ञानतेज वध्युं एटले प्रकाश थयो, प्रधान उद्यम जाग्यो भने उपशम रस रूप अमृत पानना सुखनो जेने पोष थयो, ते सुविचक्षण पुरुषने संसार निकट व्यो, ते तो सुगम वातमां मुक्तिनो मारग पाम्यो ॥५७ ॥ जेना हृदयमां स्याहाद स्वरूपनी साधनाथी शुभ श्रात्मानो अनुनव प्रगट थयो अने जेने संकल्प विकल्पनो विकार बहु नातनो हतो ते मटीने सदा कालमां एक चेतना रस जे एकी नावपणुं ते पणे परिणम्यो, तेणे करीने बंध विधिनो परिहार जे संवरनुं धरतुं ते जेने थयुंजे, अने निस्पृह दशाथी मोदनो जे अंगीकार तेना विचा रनो पक्ष धार्यों के ते पद बांडी दीधो, जेना ज्ञाननो महिमा दिन दिन प्रते उ द्योत थयोडे. तेज जीव नव समुज उतरीने पार पहोंच्यो एम जाणवू. ॥ ५ ॥ हवे श्रनुनवीनी व्यवस्था तेज उपादेय ते कदे :-श्रथ अनुनी व्यवस्था कथन: ॥ सवैया इकतीसाः॥ -अस्तिरूप नासति अनेक एक थिररूप, अथिर इत्यादि नानारूप जीव कहिये; दीसे एक नैकी प्रतिदनी अपर पूजी नैको नै दिषा वाद विवादमे रहिये; थिरता न हो विकलपकी तरंगनिमे, चंचलता बढे अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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