Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 189
________________ श्री समयसारनाटक. उल एसिद्धथयो, एवी सम्यग् दृष्टि पाम्याविना मिथ्यात्वी पोतानुं स्वरूप घोलखे नही. ते नंतकाल रिके के० लगी जगत्नी जालमां मोले ॥ ५३ ॥ हवे जे श्रात्मानो अनुभव पाम्यो तेनो विलास कहे बेः :- अनुज विलासः - ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जे जीव दरवरूप तथा परजायरूप, दोन नै प्रवान वस्तु सुद्धता गढ़त है; जे अशुद्धभावनिके त्यागी नए सरवथा विषेसों विमुष व्है वि रागता चहत है; जो ग्राहजजाव त्यागनाव डुहूं नाव निको, अनुजौ अन्यास विषे एकता कहत है; तेई ज्ञान क्रियाके आराधक सहज मोष, मारग के साधक बाधक मदत है. ॥ ५४ ॥ अर्थः- जे कोई जीव द्रव्यार्थिक ने पर्यायार्थिक ए वे नय प्रमाण करीने व स्तुनी शुद्धताने ग्रहेबे, जे जीव रागद्वेष मोही आत्मामां जे अशुद्धजाव बे तेना सर्वथा त्यागी थया बे, तेथी पांच इंद्रियोना विषयथी विमुख थईने वैरागतामां जे वर्त्तवा लागेबे, घने जे जावित चौदे रत्नमां व जाव रत्न ग्रहण करवा योग्य बे, अने आव जाव रत्न त्यागवा योग्य बे, एटले व देयने व उपादेय बे, अनुजवना अभ्यासविषे बने जावनी एकता करेबे, एटले जे द्रव्यमां दृष्टि रहे खने पर्याय मां दृष्टि न रहे, तेने एकता कडे. ते जीव ज्ञान क्रिया जे मोक्ष मार्गनुं कारण कयुं वे तेना आराधक था. छाने सहजरूपमां मोक्ष मार्गना साधक थया; फरी तेने कर्म बाधा न होय, तेथी अबाधक थया महिमावंत थया, पूजनिक थया ॥ ५४ ॥ दवे जे ज्ञान थने क्रियाने निन्ननावे माने बे तेने एनी एकता कही देखाडे बे:sar ज्ञान क्रिया एकता कथनः ॥ दोहराः ॥ - विनसि अनादि अशुद्धता, होइ शुद्धता पोष; ता परन तिकों बुध कड़े, ज्ञान क्रियासों मोष ॥ ५५ ॥ अर्थः-नादि कालनी जे अशुद्धता बे तेनो ज्यां विनाश थायबे त्यां शुद्धतानुं पोषण थायडे, एवी जे श्रात्मानी परिणति थाय तेज ज्ञाननी क्रिया कद्देवाय तेने बुध के० पंडित पुरुष एवं कदेबे के ए ज्ञान क्रियाथी मोक्ष याय, श्रांदी ज्ञान तथा क्रियानी जे दुविधा लखेबे ते शब्दनयथी जाणवी ॥ ५५ ॥ दवे ज्ञाननी व्यवहार नयथी थापना देखाने बे:- अथ ज्ञान द्रव्य स्थापनाः॥ दोहराः ॥ - जगी शुद्ध समकित कला, वगी मोषमग जो; वदे करम चूरन करे, क्रम क्रम पूरन होइ ॥ ५६ ॥ जाके घट एसी दशा, साधक ताको नाम; जेसे दीपक जो धरे, सो उजियारो धाम ॥ ५७ ॥ अर्थः- जेणे शुद्ध सम कितनी कला जाणी ने जे कला मोक्षना मुखमां जावा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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