Book Title: Pind Vishuddhi
Author(s): Kulchandrasuri, Punyaratnasuri
Publisher: Divya Darshan Trust
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धिइबलसञ्जमजोगा, जेण ण हायन्ति सम्पइ पए वा । तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफलं । ।९५ ।। जेणइबहु अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादेज्जव वामेज्जव मारेज्जव तं अजीरन्तं । ९६ ।। अङ्गारसधूमोवम, चरणिन्धणकरण भावओ जमिह । रत्तो दुट्ठो भुजइ, तं अङ्गारं च धूमं च ।।९७।। छुहवेयणवेयावच्च-सञ्जमसुज्झाणपाणरक्खट्ठा। इरियं च विसोहेळं, भुञ्जइ न उ रूवरसहेऊ ।।९८ ।। अहव न जिमेज्ज रोगे, मोहुदये सयणमाइउवसग्गे। पाणिदयातवहेउं, अन्ते तणुमोयणत्थं च ।।९९ ।। इह तिविहेसणदोसा, लेसेण जहागमं मएऽभिहिया। एसु गुरुलहुविसेसं, सेसं च मुणेज्ज सुत्ताउ । ।१०० ।। सोहन्तो य इमे तह, जइज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए । उस्सग्गववायविऊ, जह चरणगुणा न हायन्ति ।।१०१ ।। जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ।।१०२ ।। इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा, जं पिण्डनिज्जुत्तिओ, किञ्ची पिण्डविहाणजाणणकए, भव्वाण सव्वाण वि। वुत्तं सुत्तनिउत्तसुद्धमइणा, भत्तीइ सत्तीइ तं, सव्वं भव्चममच्छरा सुयहरा, बोहिन्तु सोहिन्तु य।।१०३ ।।
।। इति पिण्डविशुद्धिप्रकरणं समाप्तम् ।।
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