Book Title: Pind Vishuddhi
Author(s): Kulchandrasuri, Punyaratnasuri
Publisher: Divya Darshan Trust
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४४३
देसाणुचियं बहुदव्वमप्पकुलमायरो य तो पुच्छे। कस्स कए केण कयं, लक्खिज्जइ बज्झलिङ्गेहि।।२३।। धाइ दूइनिमित्ते, आजीववणीमगे तिगिच्छा य। कोहे माणे माया, लोभे अ हवंति दस एए॥५८|| धिइबलसञ्जमजोगा, जेण ण हायन्ति सम्पइ पए वा। तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफल।।९५।। नणु मुणिणा जं न कयं, न कारियं नाणुमोइयं तं से। गिहिणा कडमाययओ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो।।२६।। पडिसेवणपडिसुणणा संवासणुमोयणेहिं तं होइ। इह तेणरायसुय-पल्लिरायदुढेहिं दिटुंता॥१३।। पढमे दिणम्मि कम्म, तिन्निउ पूइ कयकम्मपायघरं। पूइ तिलेवं पिढरं, कप्पइ पायं कयतिकप्पं॥३६॥ परिअट्टिए अभिहडु-ब्भिन्ने मालोहडे अ अच्छिज्जे। अणिसिट्ठज्झोयरए, सोलस पिण्डुग्गमे दोसा॥४॥ पल्लटियं जं दव्वं, तदन्नदव्वेहिं देइ साहूणं। तं परियट्टियमेत्थं, वणिदुगभइणीहि दिट्टतो।।४५।। पाउयरणं दुविहं, पायडकरणं पयासरणं च। सतिमिरघरे पयडणं, समणट्ठा जमसणाईण।।४१।। पायडकरणं बहिया-करणं देयस्स अहव चुल्लीए। बीयं मणिदीवगवक्ख-कुड्डच्छिड्डाइकरणेण॥४२॥ पिण्डट्ठा समणातिहि-माहणकिविणसुणगाइभत्ताणं। अप्पाणं तब्भत्तं, दंसइ जो सो वणिमोत्ति।।६५।। पुढविदगअगणिपवणे, परित्तणते वणे तसेसुं च। निक्खित्तमचित्तं पिहु, अणन्तरपरम्परमगेज्झ।।८१॥ पुव्विं पच्छा संथव, विजामते य चुन्नजोगे या उप्पायणाए दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य॥५९।। बायरसुहुमुस्सक्कण-मोसक्कणमिइ दुहेह पाहुडिया। परओकरणुस्सक्कण-मोसक्कणमारओ करणं।।४०।। बारसविहं विभागे चउहुद्दिढे कडं च कम्मं च। उद्देससमुद्देसा-देससमाएस भेएण।।२९।। बालस्स खीरमज्जण-मंडणकीलावणंकधाइत्तं। करिय कराविय वा जं, लहइ जइ धाइपिण्डो सो।।६०॥ भणियं च पञ्चमङ्गे-सुपत्तसुद्धन्नदाणचउभङ्गे। पढमो सुद्धो बीए-भयणा सेसा अणिट्ठफला।।२२॥ भणिया उग्गमदोसा, सम्पइ उप्पायणाए ते वोच्छं। जे णज्जकज्जसज्जो, करेज पिण्डठ्ठमवि ते य॥५७।। भुंजइ आहाकम्म-सम्मं जो न य पडिक्कमति लुद्धो। सव्वजिणाणाविमुहस्स-तस्स आराहणा नत्थि।।१९।। भेसज्जवेज्जसूयण-मुवसामणवमणमाइकिरियं वा। आहारकारणेण वि, दुविह तिगिच्छं कुणइ मूढो॥६६।। मङ्गलमूलीण्हवणाइ गब्भवीवाहकरणघायाइ। भववणमूलकम्मंति, मूलकम्मं महापाव।।७५।। माइभवा विप्पाइ व, जाइ उग्गाइ पिउभवं च कुलं। मल्लाइ गणो किसिमाइ, कम्म चित्ताइ सिप्पं तु॥६४।। मायाए विविहरूवं, रूवं आहारकारणे कुणइ। गिहिस्समिमं निद्धाइ, तो बहु अडइ लोभेण॥६९॥ लद्धिपसंस(सउ)त्तिइउ, परेण उच्छाहिओ अवमओ वा। गिहिणोभिमाणकारी, जं मग्गइ माणपिण्डो सो।।६८।। वंतुच्चारसुरागोमंससममिमंति तेण तज्जुत्तं। पत्तं पि कयतिकप्पं, कप्पइ पुव्वं करिसघ8।।१६।। विज्जातवप्पभावं, निवाइपूयं बलं व से नाउं। दट्ठण व कोहफलं, दिति भया कोहपिण्डो सो॥६७।। संखडि भुत्तुवरियं, चउण्हमुद्दिसइ जं तमुद्दिढ़। वंजणमीसाइ कडं, तमग्गितवियाइ पुण कम्म।।३१।। संथरणंमि असुद्धं-दोण्हवि गेण्हत्तदेंतयाणऽहिय। आउरदिटुंतेणं-तं चेव हियं असंथरणे।।२१।। संवासो सहवासो, कम्मियभोइहिं तप्पसंसाउ। अणुमोयणत्ति तो ते, तं च चए तिविहतिविहेण॥१५॥ संसत्तअचित्तेहि, लोगागमगरहिएहि य जईण। सुक्कल्लसचित्ते हि य, करमत्तं मक्खियमकप्प।।८०॥
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