Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 196
________________ प्रवेताम्बर मान्यता अनुसार तीन गतिगे सागकी पोर को प्रायोगिी ममयममय पर होनेवाली प्रागम-धागनायो मायमगे बना लिया गया। पता नाना पग्विनाम यावजूद भी पतंगान मे उपनगम की मौगिपिगी पिण्यामाधार पर येताम्बर मूर्तिपूजा परमग 45 पागम-गूगोगो मागमा मानी नया म्यानण्याती और तेरापगी पराग 32 मतो गो। प्रशोगों के प्रतिरिक्त 32 मतांनी प्रामागिाना में नीनो ही परम्परा क मत। प्रम्बा निवना मायम नाम्पर परम्परा मम्मामी 32 प्रागम गन्गी जो पापार मानकर दर्ता गरा। मैं एम-मागम अन्धका पोरगारिस पग्निय नरा प्रयदा, कर मोये तोके पागणी उतर जागा नाहीनाकिम पागम मास्मिरी प्राय भूमियों पर ममप्रनाले विचार मर ग। प्रागमो की भाषा दगोमाय नम्प म्यापित करने मगक मारनामा भाषामा प्रयोजन है,अपने भीतरगतका भीगरी जगत् में उतार देना। दृष्टिगे भाषा एउपयोगिता है। किन्तु उस समय भागा माप उपयोगिता न रहार भरण पोर चटपा का मानदण्ट बन गई। विद्वान लोग उस गगृत भाषा में बोलने नगे, जो जनमाधारण के लिए प्रगम भापा दी। महावीर मानक्षम गा-गोजगाना। मगको जगानो निएमबफ माय मम्प साधना मावश्यक होता है। मार घाभिजात्य भाषा या पणिनी की भाषा जन-मामाको माय मम्पर्क स्यापित करने में गहयागी नही बन गवानी। प्रा महावीरने जन भापाको ही जन-सम्पर्कका माध्यम बनाया । वह थी उन ममी लोक भाषा-प्रागत । वह भाषा मगधो पाने भागमे बोली जाती थी, अत यह मद्धमागधी भी कहलाती थी। प्रर्धमागधी मनमय को प्रनिप्ठित भाषा थी। वह प्रार्य-भापा मानी जाती थी। उम भापाका प्रयोग करने वाले भाषा-प्रार्य कहलाते थे। प्रातका अर्थ है-प्रकृति-जनताकी भापा। भगवान महावीर जनताके लिए, जनता की भाषामे बोले थे, प्रत वे जनता के बन गए। प्राकृत भाषा में निबद्ध होते हुए भी जन प्रागम माहित्यको भापाकी दृष्टिसे दो युगो मे बाट सकते है। ई०पू० 400 से ई० 100 तकका पहला युग है। इममे रचित अङ्गो की भाषा प्रघं-मागधी है । दूमरा युग ई० 100 से ई० 500 तकका है। इममे रचित या नियूंढ भागमोकी भाषा जन-महाराष्ट्री प्राकृत है। वैसे समकालीन ग्रन्यो की प्राकृत भापा में भी परस्पर पर्याप्त भिन्नता है। जैसे सूत्रकृताग की भापा दूसरे ग्रन्यो की भापा से भिन्न ही पड़ जाती है। उसमे ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए है, जो व्याकरण के नियमो से सिद्ध नहीं होते। इससे सूत्रकृताग की प्राचीनता सिद्ध होती है। प्राचाराग प्रथम और द्वितीय की भाषा का प्रवाह तो एकदम बदल गया है। शैली मागम ग्रन्थो मे गद्य, पद्य और चम्पू-इन तीनो ही शैलियो का प्रयोग हुमा है। प्राचाराग (प्रथम) चम्पू-शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। फिर भी किसी ग्रन्थमे प्रादि से लेकर अन्त तक एक

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