Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 229
________________ लगते हैं, जिससे उसका हृदय सौन्दर्य से भर जाता है। उसके लिए अपना दुख-सुख कुछ भी शेष नही रहता । वह नश्वर भोगो से ऊपर उठ जाता है। जिन भोगो का अन्त होता है, उन अन्त-युक्त भोगो से वह मुक्त हो जाता है। फिर वह अपने अन्दर मे पाने वाले निज रस का पास्वादन करता है। यह रस सदा बना रहने वाला होने से अन्तहीन होता है। अत यह अनन्त रस होता है। इस रस की क्षति कभी नही होती है । इसलिये इस निज रस का धणी अनन्त भोग का स्वामी होता है। उस करुणावान व्यक्ति को सभी अपने लगते हैं, वह व्यक्ति भी सभी को अपना लगता है। यह प्रात्मीय भाव माधुर्य को प्रगट करता है। उसका यह माधुर्य, आत्मीय भाव सब प्राणियो के प्रति सदैव बना रहता है। मधुरता का यह रस प्रतिक्षण नया बना रहता है। यह अनन्त माधुर्य ही जैनागम की भाषा मे अनन्त उपभोग कहा जाता है । उस करुणावान व्यक्ति को अनन्त लाभ, अनन्त भोग-उपभोग तथा अनन्त शान्ति रूप अखण्ड, अनन्त रस की उपलब्धि होती है। फिर उसे ससार और शरीर से कुछ भी पाना शेप नहीं रहता। वह कृतकृत्य को जाता है । उसे पर की अपेक्षा नही रहती है। जहा पर की अपेक्षा होती है, वही असमर्थता होती है। जिसकी प्राप्ति मे पर की अपेक्षा नहीं है, पराधीनता नही है, जो स्वाधीन है, उसमे असमर्थता की गन्ध मात्र भी नही होती है। उसमें असमर्थता का अभाव हो जाता है। असमर्थता का प्रभाव हो जाने से वह अनन्त सामर्थवान है। इसी को आगम की भाषा में अनन्तवीर्य कहा है। इस प्रकार जो समस्त प्राणियो की पीडा से करुरिणत है, वह अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्य का स्वामी होता है । करुणा का क्रियात्मक रूप दान है। चाह के प्रभाव का द्योतक लाभ है। सबके प्रति सौदर्य का, भलेपन का, प्रियता का भाव भोग है। सबके प्रति माधुय का भाव उपभोग है। कृतकृत्यता का द्योतक वीर्य है। लाभ प्राप्ति का परिणाम शान्ति, भोग का परिणाम रस (सुख) है । उपभोग का परिणाम उस रस का नित्य बना रहना है । वीर्य का परिणाम असमर्थता से छुटकारा पाना है। मोह के कम होने मे सवेदन शक्ति बढ जाती है। जडता मिटने से चेतना का विकास होता है। जो जितना विपय-सुस मे प्रावद्ध है, उसकी चेतना उतनी ही मूच्छित, जडता-युक्त है, वह वेहोश होती है । वह अपने सुग्व मे इतना डूबा रहता है कि उसके सुख प्राप्ति के कारण से दूसरो को दुख होने पर भी उसमे उनके प्रति करुणा नही जगती है। वह दूसरो को दुखी करके भी अपना सुख भोगता रहता है । उमकी वह क्रता, करुणाहीनता, उसकी चेतना की मूच्छित अवस्था का ही द्योतक है । मोह के घटने पर ही स्वार्थ भाव घटने लगता है। स्वार्थ भाव के घटने पर ही करुणा भाव जागृत होता है । अत करुणा भाव मोह के घटने या मिटने का द्योतक है। मोह के मिटने से कामना मिटती है, कामना के मिटने पर कभी कमी का अनुभव नही होता है, सदैव ऐश्वर्य व लाभ की अनुभूति होती है। कामना मिटने से कामना पूर्ति से होने वाला राग और कामना पूर्ति से होने वाला कैप मिट जाता है। रागद्वेप मिटने से भेद-भिन्नता मिटकर उसमे सबके प्रति माधुर्य भाव पैदा हो जाता है जो उसे निज रस (सुख) से भर देता है। यह निज रस की अनुभूति भोगोपभोग की उपलब्धि है। वह निज रस में इतना निमग्न रहता है कि फिर उसे कुछ भी चाह नही रहती है। चाह नहीं रहने से कुछ भी पाना शेष नही रहता है। पाना शेष नही रहने से करना शेष नही रहता है, चाहना, पाना, करना शेष नही रहने पर जानना शेप नही रहता 37

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