Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 225
________________ युग को पार कर उसके प्रारम्भ काल तक या यो कहिये कि प्रागैतिहासिक युग के अन्तिम चरण मे मध्य भारत के युद्ध के समय तक दिखायी देता है। जैनधर्म के बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। अपने विवाह के अवसर पर वध करने के लिए एकत्र किये गये मूक प्राणियो के मार्तनाद को सुन नेमिकुमार विवाह मण्डप से लोट पडे थे और अपना रथ गिरिनार की भयकर गुफामो तथा झाडियो की ओर ले गये थे, जहा उन्होने अखड तप, त्याग, सयम एव तितिक्षा के माध्यम से वैराग्यपूर्ण साधना प्रारम्भ की। भगवान नेमिनाथ द्वारा प्रदत्त करुणा और वैराग्य की ऐसी अमूल्य निधि को गुजरात की भक्ति प्रवरण और धमशील प्रजा ने अब तक सभाला है। सच पूछिये तो सम्राट अशोक ने गुजरात मे जिस करुणा और अहिंसा की भावना का अलख जगाया वह केवल पूर्वी भारत से पश्चिम भारत की ओर ले जाया जाने वाला पुनरुच्चारण और पुनर्जागरण था। वस्तुत अहिंसा और दया की भावना समूचे गुजरात मे इससे बहुत पहले ताने-बाने की तरह बुनी हुई थी। श्रीकृष्ण का पशुप्रेम भी उतना ही सुप्रसिद्ध है। जैनधर्म का प्रारुपण यद्यपि पूर्वी भारत मे हुआ, किन्तु गुजरात की धरती पर परप्रान्त का बीजाकुरण हुआ और फला-फूला, यही इसकी अहिंसा-प्रियता का बडा प्रमाण है । क्षत्रपो के समय मे आये हुए ह्वेनसाग के यात्रा विवरण मे राजा शिलादित्य (प्रथम) का उल्लेख मिलता है, जिसने जीवन-पर्यन्त किसी भी प्राणी को हानि नही पहुँचाई और उसके हाथी-घोडे तक किमी जीव-जन्तु की हिंसा न करें इसके लिए उमने उन्हें कपडे से छने हुए पानी को पिलाने की व्यवस्था की थी। ह्वेनसांग लिखता है कि उसके राज्यकाल के पचास वर्षों मे मादा पशु मनुष्यो के साथ हिलमिलकर जाते ये और लोग उन्हे सताते नही थे । इत्सिग भी इस प्रदेश की एक रीति का उल्लेख करते हुए लिखता है कि यहा पर छने हुए पानी मे से निकलने वाले जन्तुओ को पुन पानी मे डालकर जीवित रखने का रिवाज है। इसे बौद्धधर्म का प्रभाव भी कहा जा सकता है। लेकिन, जैनो ने इसे व्यापक और प्रवल बनाने में विशेष योगदान दिया है। इसके अन्तर्गत सोलकीयुगीन महाराजा कुमारपाल के योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है ? महाराजा कुमारपाल की 'प्रमारि घोषणा' वस्तुत एक वृहद् सास्कृतिक घोषणा है। इसमे वे अशोक से भी एक कदम आगे हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य ने "हृदयाश्रय" काव्य में इस बात का उल्लेख करते हुए कहा है कि उन्होने कसाईयो और शिकारियो द्वारा होने वाली हिंसा को रोका, देवो की पाहुति के निमित्त बकरो की बलि को भी उन्होंने वद करवाया और मासादि के विक्रय से जिनकी आजीविका चलती थी, उसे बद कराकर राजा ने उन्हे तीन वर्ष का धान्य प्रदान किया। "अमारि घोपरणा" का प्रचार कुमारपाल ने मात्र गुजरात मे ही नहीं, अपितु अपने सामतो द्वारा समग्न साम्राज्य मे गुजित किया था। मारवाड के एक भाग में स्थित रत्नपुर के शिव मन्दिर, और जोधपुर राज्य के किराड़ से प्राप्त हिंसा-विरोध के आलेख आज भी इसकी साक्षी देते है। इनके अलावा कुमारपाल ने राजापो और राजपूतो मे प्रचलित मद्यपान एव मास-भक्षण की कुरीतियो को भी रोका था। यही नही, उसने परस्त्रीगमन और धूतक्रीडा का भी निषेध किया था। इस रूप मे गुजरात की जनता मे प्रत्येक अनाचार के प्रति हमे जिस तिरस्कावृत्ति के दर्शन होते है, उसके लिए सहजानन्द स्वामी के साथ इन्हे भी श्रेय देना होगा। 33

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