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गुजरात की संस्कृति में श्रहिंसा - भावना
डॉ० कुमारपाल देसाई
और यहा पर निवास करने वाली गुजरात की जनता के गठन मे की वजह से यहा की संस्कृति के
गुजरात की धरती पर विभिन्न जातिया श्राकर बसी है, जातियो को सघर्ष समन्वय की प्रक्रिया से भी गुजरना पडा है। कतिपय मूल्य ऐसे हैं, जो विशेष रूप से उभर कर आते हैं। इन्ही पटल पर श्रहिंसा, जीवदया और सर्वधर्म भावना का पुट विशेष दिखायी देता है। वस्तुत गुजरात मे ऐसे सस्कारो के बीज हमे ईसा की तीसरी शताब्दी पूर्व से ही मिलने लगते हैं । सभव है यह प्रक्रिया इससे पूर्व की भी हो। श्राज के जनजीवन मे एकरस होकर समा जाने वाली ये करुरणागामी सुकुमार भावनाए सदियो पूर्व इस प्रदेश को मिट्टी मे घुलमिल कर स्थिर हो चुकी थी ।
अहिंसा - भावना का एक विशिष्ट व्यवहारजन्य श्राविष्कार ही जीवदया या करुणा है । अपने लिए किसी को दुख न पहुँचाना ही अहिंसा है और दूसरो के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने का आनन्द ही करुणा है । इस रूप मे अहिंसा और करुणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । तदर्थं इन दोनो भावनाओ को एक साथ देखना ही समीचीन होगा। देवानाप्रिय प्रियदर्शी अशोक ( ई० पू० 274-237) को चौदह श्राज्ञाएं गिरिनार के "शैलकरण" पर आलेखित हैं। वस्तुत यह शिलालेख गुजरात के इतिहास का पहला प्रमाण है, जो गुजरात की सस्कारजन्यता को अपने सीने पर टकित किये हुए है । इसमे प्राणिवध को वज्यं समझने के उपरान्त प्राणि की सुरक्षा पर भी बल दिया गया है । एक आज्ञा मे लिखा है - " जहा जहा मानवोपयोगी एव पशुपयोगी श्रीपधिया नही थी, वहा-वहा वे मगवायी गयी और उन्हे रोपा गया। जहा जहा फल-मूल नही थे, वहा वहा वे मगवाये गये और उन्हे रोपा गया। पशुओ और मनुष्यो के उपयोग के लिए रास्तो पर कुएं खुदवाये गये । प्रस्तुत श्राज्ञा मे मनुष्य के साथ-साथ मूक प्राणियो का भी कितना ध्यान रखा गया है । गुजरात ने अहिंसा और जीवदया की भावना को अपने जीवन मे न केवल अनुभूत किया है, बल्कि उसे भोगा और जिया भी है। पशु-पालन एव अपग पशुओ को सुरक्षा प्रथा के मूल हमे यहाँ दिखायी देते हैं । श्राज की "पाजरापोल" सस्थाओ के मूल भी तो गुजरात से ही हैं न ।
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लेकिन, यह तो दो-एक हजार वर्ष के इतिहास-युग की बात हुई । गुर्जर भूमि को प्राप्त अहिंसा, जीवदया और प्राणिमात्र की रक्षा का उत्कट एव सुभग भावनापूर्ण चरण तो हमे, इतिहास