Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

Previous | Next

Page 204
________________ मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वय के कर्मों पर आधारित है। प्रत जैन दर्शन की गणना नास्तिक दर्शनो मे करना नितान्त असगत है। जैन रहस्यभावना श्रमण सस्कृति की अन्यतम साधना है। जैन साधको ने आत्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यह प्रात्मा जबतक ससार मे जन्म मरण का चक्कर लगाता है तबतक अशुद्ध रहता है और जव सकल कर्मों से मुक्त हो जाता है तो उसे विशुद्ध अथवा विमुक्त कहा जाता है। प्रात्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्मा पद की प्राप्ति स्व-पर विवेक रूप भेद-विज्ञान के होने पर ही होती है। भेदविज्ञान की प्राप्ति मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के समन्वित पाचरण से हो पाती है। इस प्रकार प्रात्मा द्वारा परमात्मापद की प्राप्ति ही जैन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है। यही अध्यात्म है जिसे अभिव्यक्ति के क्षेत्र मे बनारसीदास ने अध्यात्मशैली कहा है। स्वानुभूति और प्रात्मचिन्तन उसके केन्द्रीय तत्व हैं । इस सक्षिप्त विवेचन के बाद यह भी समझ लेना आवश्यक है कि जैन और जैनेतर रहस्यभावना मे क्या अन्तर है जैन रहस्यभावना प्रात्मा और परमात्मा के मिलने की बात अवश्य करता है पर वहा प्रात्मा से परमात्मा मूलत पृथक नहीं। आत्मा की विशुद्धावस्था को ही सज्ञा दी गई है। जवकि अन्य साधानमो मे अन्त तक प्रात्मा और परमात्मा दोनो पृथक रहते हैं । प्रात्मा और परमात्मा के एकाकार होने पर भी प्रात्मा परमात्मा नही बन पाता। जैन साधना अनन्त आत्मानो के अस्तित्व को मानती है पर जनेतर साधनामो मे प्रत्येक प्रात्मा को परमात्मा का अश माना गया है। जैन रहस्यभावना मे ईश्वर को सुख-दुख का दाता नही माना गया वहा तीर्थकर की परिकल्पना मिलती है जो पूर्णत वीतरागी और प्राप्त है । अत. उसे प्रसाददायक नही माना गया। वह तो मात्र दीपक के रूप मे पथदर्शक स्वीकार किया गया है। उत्तरकाल मे भक्ति प्रान्दोलन हुए और उनका प्रभाव जैन साधना पर भी पड़ा । फलत उन्हे भक्तिवश दु खहारक और सुखदायक के रूप मे स्मरण किया गया है। प्रेमाभिव्यक्ति भी हई पर उसमे भी वीतरागता के भाव अधिक निहित हैं। 3 ज जैन साधना अहिंसा पर प्रतिष्ठित है । अत उसकी स्वस्थ भावना भी अहिंसा मूलक रही। षट्चक्र कुण्डलिनि आदि जैसी तान्त्रिक साधनामी का जोर उतना अधिक नही हो पाया जितना अन्य साधनामो मे हुआ। 4 जैन रहस्यभावना का हर पक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप पर आधारित है। 5 स्व-पर विवेकरूप भेद-विज्ञान उसका केन्द्र है। 6 प्रत्येक विचार पक्ष निश्चय-व्यवहारनयाश्रित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269