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जैन दर्शन का सामान्य-विशेषवाद
-डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा
दार्शनिक जगत् मे यह बहुत कठिन समस्या है कि पदार्थ या तत्व को सामान्य माना जाए अथवा विशेष, एक अथवा अनेक । इसके समाधान-स्वरूप चार प्रकार के मत मिलते हैं । 1 अद्वैतवादी, मीमासक तथा साख्य मानते हैं कि सामान्य ही सत् है या सत् सामान्य है।
वह एक है। 2. बौद्धो के विचार मे विशेष सत् है या सत् विशेष है और विशेष होने के कारण वह
अनेक भी है। 3 न्याय-विशेषिको के मत मे सामान्य सत् है और विशेष भी सत् है किन्तु दोनो एक दूसरे से भिन्न हैं, निरपेक्ष हैं। सामान्य को एक कह सकते हैं किन्तु विशेष अनेक है, सामान्य और विशेष भिन्न हैं।
4 जैन दर्शन ऊपर कथित तीनो ही विचारो को अस्वीकार करता है इसके अनुसार पदार्थ
न केवल सामान्य है,न केवल विशेष और न इन्हें सामान्य और विशेष रूपो मे भिन्न-भिन्न माना जा सकता है। पदार्थ सामान्य और विशेष, एक और अनेक, दोनो ही रूपो मे देखे जा सकते हैं । किन्तु सामान्य और विशेष अलग-अलग नही रहते। ये दोनो ही हर वस्तु मे देखे जाते हैं । प्रत्येक वस्तु सामान्य होकर विशेष और विशेष होकर सामान्य है। एक होकर अनेक और अनेक होकर एक है।
ये चार मत अपनी-अपनी पुष्टि के लिए इस प्रकार तर्क देते हैं-- सामान्यवाद
इस मत मे केवल सामान्य की ही सत्ता है विशेष की नही। सामान्य से भिन्न कोई भी सत्ता नही होती। क्योकि(क) पदार्थ सत् रूप में ही जाने जाते हैं, सत् एक है। पदार्थ या द्रव्य का द्रव्यत्व एक है।
द्रव्यत्व को छोडकर कोई तत्व नही पाया जा सकता।
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