Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 220
________________ । स्थान से दूसरे स्थान तक जल्द या देर से पहुंचते हैं, उसी प्रकार शब्द-परमाणु भी हवा की अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार जल्द या देर से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचते हैं। 2 कस्तूरिका प्रादि गन्ध बन्द स्थान में प्रवेश करती है और निकलती हैं, फिर भी वे पोद्गलिक हैं। 3 विद्यत और उल्कापात के कोई भी अवयव उसके पहले अथवा वाद मे दिखाई नहीं पडते, फिर भी वे पौद्गलिक होते हैं। 4 गन्ध, रग और धूल मे रहती है और नासिका मे प्रवेश करके अपने अपने अनुकूल प्रेरणा प्रस्तुत करती है । परन्तु वह देखी नही जाती है । उसी प्रकार शब्द भी यद्यपि नही देखा जाता है किन्तु कर्णरन्ध्र मे पहुंच कर प्रेरणा उत्पन्न करता है। 5 शब्द रूपादि की तरह इन्द्रिय के प्रत्यक्षीकरण का विषय बनता है। इसलिए इसे माकाश का गुरण नही मानते। इस प्रकार शब्द पौद्गलिक हैं, सामान्य-विशेष रूप है । यद्यपि जनमत मे पौद्गलिक अथवा अपोद्गलिक जो भी है वे सभी सामान्य-विशेष रूप हैं फिर भी पौद्गलिक को ही यहा सामान्यविशेष का आधार बनाया गया है ताकि साधारण लोग भी इसे सुगमता से समझ सकें। मीमासा दर्शन में शब्द को नित्य और एक माना गया है। इसके विपरीत बौद्ध दर्शन मे शब्द अनित्य तथा अनेक कहा गया है किन्तु जैन दर्शन मे शब्द सामान्य-विशेष तथा एक-अनेक है। कारण वाच्य और वाचक मे कथचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। इसके सम्बन्ध मे भद्रबाह ने ऐसा कहा है वाचक और वाच्य कथचित् भिन्न हैं और कथचित् अभिन्न भी हैं। "छुरा" "पाग" और 'मिठाई के उच्चारण मात्र से ही किसी का शरीर न कटता है, न जलता है और न किसी को मधुरता का अनुभव होता है। इसलिए वाच्य और वाचक भिन्न है। किन्तु "छरा", "पाग" और "मिठाई" के उच्चारण से ही 'छुरा", "प्राग" और "मिठाई" का बोध होता है। इसलिए वाच्य और वाचक अभिन्न हैं। जिस प्रकार "वाच्य" सामान्य-विशेष, एक-अनेक तथा भाव-प्रभाव रूप होते हैं उसी प्रकार वाचक भी सामान्य-विशेष, एक-अनेक और भाव-अभाव रूप होते हैं। "घट" शब्द मिट्टी के उस पात्र के लिए व्यवहार मे आता है जिससे जल लाने या रखने का कार्य होता है। किन्तु योगी लोग शरीर को ही घट कहते हैं । "चोर" शब्द चोर के लिए व्यवहृत होता है किन्तु दक्षिण में इसका व्यवहार चावल के लिए होता है। कर्कटी शब्द का प्रसिद्ध अर्थ ककडी है किन्तु किसी-किसी स्थान पर इसका प्रयोग योनि के लिए होता है। इसी तरह जीतकल्प व्यवहार मे प्रायश्चित विधि की चर्चा मे षडगुरू का अर्थ 180 उपवास किया गया किन्तु अब पडगुरू से केवल तीन उपवास समझा जाता है। देश और काल के अनुसार वाचक के विभिन्न प्रयोग देखे जाते हैं । 28

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