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2 मध्यकाल-प्रथम-द्वितीय शती से लेकर 7-8 वी शती तक ।
3 उत्तरकाल-8-9 वी शती से आधुनिक काल तक ।
भेदविज्ञान हो जाने पर व्यक्ति प्रात्मज्ञ हो जाता है और अप्रमादी बनकर विकल्पजाल से विमुक्त हो जाता है। आदिकाल मे अहिंसा, सत्य आदि का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण
और कर्मों के भेद-प्रभेद दिखाई नहीं देते। मध्यकाल मे कुन्दकुन्दाचार्य तक आते-जाते इन धर्मों का कुछ विकास हुआ जो उनके ग्रन्यो में प्रतिविम्बित होता है। उनके बाद उनके ही पद चिह्नो पर चलने वाले आचार्यों में उमास्वाति, समन्तभद्र, सिद्धसेनदिवाकर, हरिभद्र, मुनि कात्तिकेय, अकलक, विद्यानन्द, अनन्नवीर्य, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, योगीन्दु प्रादि प्राचायों के नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होने अपनी सामयिक परिस्थितियो के अनुसार रहस्यवाद का विश्लेपण किया। साधना के स्वरूप मे कुछ परिवर्तन भी पाया। उत्तरकाल मे रहस्यवाद की प्राचारगत शाखा मे समयानुकूल कुछ और परिवर्तन हुआ। वाह्य प्राक्रमणो पोर विपदामो से बचने के लिए अन्तत प्राचार्य जिनसेन ने मनुस्मृति के प्राचार को जनीकृत कर दिया जिसका विरोध दसवी शताब्दी के प्रा० सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू में मन्द स्वर में ही किया। इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को म्वीकार कर चुकी थी। जैन रहस्यवाद की यह एक और सीढी थी जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया। इसके बाद इसे मुनि रामसिंह, बनारसीदास, रूपचद पाण्डे आदि कवियो ने अपनी अनुभूति से सजाया सवारा और विकमित किया जो उनके ग्रन्थो में परिलक्षित होता है।
अध्यात्मिक माधना की चरम परिणति रहस्य की उपलब्धि है। इस उपलब्धि के मागों में साधक एक मत नहीं है। इसकी प्राप्ति में कतिपय साधको ने शुभ-अशुभ अथवा कुशल-अकुशल कर्मों का विवेक खो दिया। बौद्ध धर्म के सहजयान, मन्त्रयान, तत्रयान, वज्रयान आदि इसी साधना के वीभत्स रूप हैं। वैदिक साधनानो मे भी इस रूप के दर्शन स्पष्ट दिखाई देते है। यद्यपि जैनधर्म भी इससे प्रखता नही रहा परन्तु यह सौभाग्य की बात है कि उसमे श्रद्धा और भक्ति का अतिरेक तो अवश्य हुमा, विभिन्न मग्री और सिद्धियो का प्राविष्कार भी हमा, किन्तु उन मत्रो और सिद्धियो की परिणति वैदिक अथवा वौद्ध सस्कृतियो में प्राप्त उस वीभत्स रूप जैसी नहीं हुई। यही कारण है कि जैन मस्कृति का मूल स्वरूप अक्षुण्ण तो नही रहा पर गहित स्थिति में भी नही पहुचा।
साधारणत जैन धर्म से रहस्यभावना अथवा रहस्यवाद का सम्बन्ध स्थापित करने के बाद उसके सामने प्रास्तिक-नास्तिक होने का प्रश्न खडा हो जाता है। पर्याप्त जानकारी के बिना कुछ विद्वानो ने जैनधर्म को नास्तिक दर्शनो की श्रेणी में बैठा दिया है। यह पाश्चर्य का विषय है । इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैन धर्म रहस्यवादी हो ही नहीं सकता। यही मूल मे भूल है।
सिद्धान्तत नास्तिक की यह परिभाषा नितान्त असगत है। नास्तिक प्रौर प्रास्तिक की परिभाषा वस्तुत पारलौकिक अस्तित्व की अस्वीकृति पर निर्भर करती है । जैन सस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था मे स्वय ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है। दैहिक और मानसिक विकारो से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेती है । इस प्रकार यहा स्वर्ग, नरक,