Book Title: Perspectives in Jaina Philosophy and Culture
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International

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Page 208
________________ प्रपेक्षा मे अभिव्यक्ति होती है हम उस घपेक्षा को समझें। तो विरुद्ध सी प्रतीत होनेवाली बातो मे मगति था जायगी अनिवार्यत श्रावश्यक है । अनेकान्त दृष्टिवाले व्यक्तियो का प्राचरण सम्यवत्व को लिये हुए होता है सम्यक्त्वी जागरुक होता है, वह सत्य को स्वीकारता है और मिथ्या से बचता है। उससे जीवन-साधना हो सकती है । स्पष्ट है ऐसा व्यक्ति जो सत् है उसे मानता है, श्रमत् को नहीं मानता। न तो वह "पर" को "स्व" मान सकता है पीर न वह "स्व" को "पर" ही बता सकता है। उसका व्यवहार दूसरो को सत्यनिष्ठ बनाने मे निमित्त बनता है । मत्वनिष्ठना की प्रेरणा उससे मिलती है। यही उसका उपग्रह या उपकार है। संयोग या निमित्त बनाने के अतिरिक्त वह और कुछ हो ही नही सकता। वह मानी नही होता, कृत्रिमता, माया, छल, कपट से दूर रहता है। दूसरे के प्राप्य का अपहरण करना उसके स्वभाव मे ही नही होता । उसके मौलिक ग्रजंन प्रौर मचय दोनो की सीमाए घटती जाती हैं, अनिवार्यत आवश्यक का ग्रहण और शेष का परित्याग स्वत होता है इस सबसे उसके जीवन मे शून्यता, रिक्तता या प्रभाव की अनुभूति नही होती। वह उसके स्वय के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, इस प्रकार यदि दृष्टि अनेकान्तात्मक हो अहिंसक समाज की रचना मे यह दृष्टि अनन्त शक्ति और अनन्त सुख मे विलीन रहता है- यही उसका ब्रह्मचयं है । अहिंसा सत्य, प्रचीर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्यं इन पाच जीवनमूल्यों की यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि है जिसे जैनदर्शन गृहस्थो के लिए धणुग्रतो के रूप मे घोर साधुमो के लिए महाव्रतो के रूप मे प्रस्तुत करता है। सक्षेप मे, जैनदर्शन की मान्यता है कि मानव जड और चेतन का स्वरूप समझता है, उसके अन्तर को पहचानता है। न तो वह दीन है और न होन है । वह शरीर नहीं, शरीर सयुक्त है । वह आध्यात्मिक शक्तियो का पुंज है। मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन है। इसी जीवन मे उसके भ्रम दूर होते हैं और उसे अपने प्रापकी अनुभूति होती है । गृहस्थ दशा मे उसे अनेकान्त दृष्टि होना चाहिए दूसरो की दृष्टि का धादर करना चाहिए किसी को भी दीन या हीन समझना स्वरूप को खोना है और सब जीवो को समान मानना स्वरूप की प्रतिष्ठा है। उसे धारमविकास के रहस्य को समझना है, उसकी गहराइयो मे प्रवेश करना है तभी वह समझ सकता है कि आत्म विकास ही लोक-विकास है, आत्मोद्धार ही लोकोद्धार है । भारतीय संस्कृति मे स्वतन्त्रता घोर समानता के चिन्तन का विकास भौतिक सकीर्णताम्रो से चाहे कभी कभी ग्राच्छन्न हो गया हो पर उसका व्यापक रूप सदा बना रहा है। जैनदर्शन द्वारा प्रस्तुत स्वतन्त्रता और समानता के सशक्त विचार, उसकी सहानुभूतिपूर्ण प्रनेकान्त दृष्टि और अहिंसामय श्राचरण की व्यवहार्यताये - सब इस व्यापक परिप्रेक्ष्य मे जन जन को आत्मबोध देने वाले, अपने शक्ति के स्वरूप को प्रकट करने वाले सिद्ध हुए हैं । निदेशक, जैन विद्या सस्थान श्री महावीरजी (राजस्थान) 16

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