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जैन रहस्यवाद
डॉ० श्रीमती पुष्पलता जैन
मानव स्वभावतया सृष्टि के रहस्य को जानने का तीव्र इच्छुक रहता है। उसकी इसी जिज्ञासा के समाधान की पृष्ठभूमि मे हर देश मे विविध प्रयत्न किये गये हैं और उन प्रयत्नो का एक विशेष इतिहास बना हुआ है। हमारी भारत वसुधरा पर वैदिक काल से आधुनिक काल तक दार्शनिको ने इससे सम्बद्ध प्रश्नो पर चितन-मनन किया है और उसका निष्कर्ष ग्रन्थो के पृष्ठो पर अकित किया है।
रहस्य के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसवेद्य स्वीकार किया। जैन सस्कृति मे मूलत इसका स्वसवेद्य रूप मिलता है जबकि जैनेतर सस्कृति मे गुह्य रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धान्त का हर कोना स्वय की अनुभूति से भरा है। उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चैतन्य रस से प्राप्लावित है। अनुभूति के बाद तर्क का भी अपलाप नही किया गया, बल्कि उसे एक विशुद्ध चिंतन के धरातल पर खडा कर दिया गया। भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान-निर्धारण जैन सस्कृति का अनन्य योगदान है।
रहस्यवाद की आधुनिक परिभापामो के चौखटे मे जैन रहस्यवाद को परिभाषा फिर नहीं हो पाती। इसलिए हम उसकी परिभाषा इस रूप मे करना चाहेगे-"अध्यात्म की चरम सीमा की अनुभूति रहस्यवाद है। यह वह स्थिति है जहा आत्मा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है और वीतरागी होकर चिदानन्द रस का पान करता है।"
रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से की गई है। जैन साधना का विकास यथासमय होता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। यह विकास तत्कालीन प्रचलित जैनेतर साधना से प्रभावित भी रहा है। इस प्राधार पर हम जैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागो मे विभाजित कर सकते है
1 प्रादि काल-प्रारम्भ से लेकर ई० प्रथम शती तक ।
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