Book Title: Parul Prasun
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 11
________________ १. अंधकार ही बना आलोक - निजघर में ! (दोराहा) दोराहे पर खड़ी हूँ मैं । आगे और पीछे घना कुहरा छाया हुआ है। आते जाते लोग कह रहे हैं कि “उस ओर मत जाओ, वहाँ अंधकार ही अंधकार है।'' और मैं मान लेती हूँ - शायद वे अपने अनुभव से बोल रहे हों। ...और मैं वापस मुड़ने लगती हूँ... पर मेरे भीतर कुछ पुकार उठता है, और मैं अंदर जाने का साहस करती हूँ... । आगे बढ़ते ही सब कुछ बदलने लगता है । लोग ऐसा क्यों बोल रहे थे? बाहर से यह घना और कभी कभी भयानक, नीरव भी लगता है। पर जैसे अंदर जाओ, वह कम होने लगता है, कम से कम कुछ दूर तक तो सब साफ दिखाई देता है। और डरावना तो बिल्कुल नहीं है। वह जैसेअपने नर्म हाथों से हमारे गाल सहलाता है .... ओस कण मोतियों से बालों पर बिखर जाते हैं ... और उसकी नीरवता शांतिदायक लगती है - बिल्कुल स्वप्नील-सी ! चलते चलते मुझे अपने पीछे किसी की पदचाप सुनाई देती है। पर मैं बिलकुल अकेली हूँ। साथ है तो बस इस कुहरे का । अंदर खुशी की एक लहर मेरे भीतर दौड़ जाती है। शायद मैं ही इसे समझ सकती हूँ, क्योंकि मैं ही कोशिश कर रही हूँ। और भी होंगे मुझ-से, कहीं दूर, पर मेरे साथ नहीं। यह मेरा अहम् हो सकता है, पर कभी कभी भी कोई दिखाई देता है तो भागता हुआ...! और जब मैं घर पहुँचती हूँ - 'अपने' घर - तो कुहरा जैसे प्रकाशमान हो जाता है....!! है ना अजीब? _पारुल-प्रसून १)

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