Book Title: Parul Prasun
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 30
________________ महसूस करने लगी। अपने अल्हड़ पागलपन की जगह पर अब वह समझदार और गंभीर दिखाई देने लगी ... । कभी वह खुली आँखों से दूर दूर तक देखा करती । कभी आँखें बंदकर अपने भीतर में कोई अजनबी दुनिया देखने चली जाती, उसमें ही खोई रहती - घंटों तक, समाधि-ध्यान की भाँति । परन्तु उसकी इस भीतरी दुनिया की बाहरी अभिव्यक्ति कहीं हो नहीं पाती थी । वह बोले तो न? सबलोग तो उसे मूक और पगली ही मान लेते थे। परन्तु उसकी खामोशी उसकी बडी शक्ति बन रही थी, उसमें नई ताज़गी और समझदारी पनपने लगी थी। भीतर की खामोशी जीवन का ज्ञान बढ़ानेवाली होती है यह उसके जीवन में अब झलकने लगा था। परन्तु निकट के सारे के सारे बाहरी लोग उसकी इस बदली हई हालत को समझने में नाकामयाब थे, असमर्थ थे। वैसे भी जग कहाँ, कब समझ पाया है किसी की भीतरी दुनिया को, उसकी गहराई और ऊँचाई को। और उसमें भी इस मीरा जैसी पगली लड़की को पहचान पाना किस के बस की बात थी? बस, वह तो जिए जा रही थी अपनी नई अंदरूनी ज़िंदगी। मेड़ता की भक्त मीरा सुदूर की बांसुरी को अतीत में से सुनती हुई अपनी भक्ति की मस्ती में 'मुखर' बनकर गा और नाच उठती थी, तो यह मीरा अपने भीतरी मौन की अनुरक्ति में आनंद पाती हुई भीतरी सृष्टि में सूर व शब्दविहीन ‘अंतर-बासुरी' सुनकर लीन हो जाती थी। अपने आनंद को जताने न तो उस के पास गीत के कोई शब्द या स्वर थे, न नाच-गान की अभिव्यक्ति । था तो एक मात्र हास्य, एक मुक्त हास्य, एक खुशमिज़ाज स्मित । लोग तो अब भी उसे 'पगली' ही समझते और कहते चले जा रहे थे। परन्तु इस अपने में ही मस्त मीरा को कहाँ परवाह थी लोगों के समझने-कहने की? वह भली और भली उसकी खामोशी की सुनहरी दुनिया - ‘काह के मन की कोउ न जानत, लोगन के मन हांसी!' समय बीतता गया... । मीरा की तनहा खामोशी दिन-ब-दिन बढ़ती ही गई। ...और .. और एक दिन खुद में खोई यह मीरा यकायक, अचानक शान्त हो गई, अनंत खामोशी की नींद में सो गई - बिना किसी दुःख-दर्द के, बिना किसी संदेश के, बिना किसी परिचयइतिहास के - ‘परिचय इतना, इतिहास यही; उमड़ी कल थी, मिट आज चली।' ___ उस के पीछे उसकी स्मृति दिलानेवाले, उसने न तो शब्द छोड़े थे, न भजन-गीत । उसका न तो कोई अक्षर देह - शब्द देह था, न स्वर देह । निःशब्द की नीरव, निस्पन्द निराली दुनिया में गति-संचरण कर गई इस मूक मीरा का अस्तित्व कहीं भी, किसी रूप में भी नहीं था, जल-प्रतिबिम्बवत् भी नहीं! ‘जल के तट पर' खड़ी रहकर, तटस्थिता' बनकर, वह बन चुकी थी - अस्तित्व-विहीना, जिसका प्रतिबिम्ब उस जल में भी कहीं न था - २८ । २८ ] पारुल-प्रसून

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