Book Title: Parul Prasun
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ भेद को यहाँ कोई स्थान नहीं । बीसवे जैन तीर्थंकर परमात्मा मुनिसुव्रत भगवान के एवं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम के विचरणवाली मानी गई रामायणकालीन किष्किन्धानगरी और मध्यकालीन विजयनगर साम्राज्य की इस भूमि में तो जैसे आज भी, गांधीगुरू श्रीमद् राजचन्द्रजी के कृपापात्र योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी जैसे महामानव की योग, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिवेणी से पावन धरा पर, भगवान मानों साक्षात् बसते हैं। ...और उन की भेद - राग द्वेष से भिन्न नज़रों में तो सभी आत्माएँ समान हैं, चाहे फिर वे अमीर की हों या गरीब की, मनुष्य-देहधारी की हों या पशु-पक्षी-कीट-पतंग की ! यहाँ सच्चे भावों का स्वागत होता है। इस आश्रम की चलानेवाली हैं - बाहर से दिखने में सीधी, सादी, सामान्य वेषधारी, पर भीतर से ज्ञान, भक्ति एवं योग की अमाप्य ऊंचाईयों पर पहुँची हुई आत्मज्ञा “माताजी' । हर कोई उन्हें इसी नाम से पुकारता है । ये सिर्फ नाम से ही नहीं, बल्कि काम से भी “माताजी' हैं, - सभी की माताजी, वात्सल्य एवं करुणा के सागर-सी माताजी !!! धनदेवीजी नामधारी जगत्माता की काया गुजरात की, कच्छ की ही है, परन्तु आत्मा, देह होते हुए भी, महाविदेह क्षेत्र की ! उन्हें “जगत्माता' के, आश्रम की “अधिष्ठात्री'' के रूप में संस्थापित किया है जंगल में मंगलरूप इस नूतन तीर्थधाम के संस्थापक महायोगी श्री सहजानन्दघनजी ने, बरसों पहले ई.१९७० में 'योग के द्वारा' अपना देहत्याग करने से पहले। आज सारा आश्रम रोशन है इन्ही जगत्माता के मुस्कुराते, जगमगाते, तेजस्वी, ज्ञानपूत चेहरे से । माताजी जगत के रागादि मोहबंधनों से दूर फिर भी जैसे निष्कारण करुणा और सर्ववात्सल्य का साक्षात् रूप है । वह सिर्फ हमारी ही नहीं, अनेक अबोल, वेदनाग्रस्त, मूक पशुप्राणियों की भी "माँ' है । हर अतिथि की, हर आगन्तुक साधु-साध्वी की ही सेवा, वैयावच्च नहीं, हर यात्री की, हर श्रावक की, हर बालक की, हर पशु-पंछी की भी जो वात्सल्यमयी सेवा माताजी करती है, वह तो देखते ही बनता है । __इतनी योग, ज्ञान एवं भक्ति की ऊँचाई पर रही हई आत्मज्ञानी माताजी इतनी सहज सरलता से सभी की सेवा में लगती है उसे देखकर तो हर कोई दंग रह जाता है। माताजी बालिकाओं एवं बहनों के लिए तो वात्सल्य का एक विशाल वट-वृक्ष-सा आसरा है। दूसरी ओर जीवन भर उनसे आत्मसाधना की दृढ़ता प्राप्त करने के बाद, मरणासन्न बूढों या अन्य मनुष्यों के लिए ही नहीं, पशुओं के लिए भी “समाधिमरण'' पाने का वे एक असामान्य आधार है। कई मनुष्यों ने ही नहीं, गाय, बछड़ों और कुत्तों ने भी उनकी पावन निश्रा में आत्मसमाधिपूर्वक देह छोड़ने का धन्य पुण्य पाकर जीवन को सार्थक किया है। ऐसी सर्वजगतारिणी वात्सल्यमयी माँ के लिए क्या और कितना लिखें? वर्णन के परे है उनका बड़ा ही अद्भुत, विरल, विलक्षण जीवनवृत्त । पारुल-प्रसून | ३१

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36