Book Title: Parul Prasun
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 29
________________ पारुल-कृत लघुकहानी एक और मीरा उसे दुनिया में आए पाँच साल हो गए थे । पर वह जैसे दुनिया को पहचान ही न पाई थी, न कुछ जानती थी इस मायाजाल के बारे में, न ही शायद जानना चाहती थी। बिलकुल लापरवाह-सी बैठी रहती थी वह । कोई खेलना भी नहीं चाहता (था) उससे । शायद डरते थे उसके बड़े से मुंह को देखकर । उम्र के हिसाब से कुछ बड़ी ही लगती थी। शरीर से ज़रूर बड़ी थी, पर मानसिक रूप से उसका विकास जैसे कुछ हुआ ही न था। हमारे पडौस में रहती थी - नाम था मीरा । कितने ही चाव से रखा होगा उसकी माँ ने यह नाम । पहले पहल उसकी माँ को दुःख तो बहुत होता था बच्चों का अपनी बेटी के प्रति ऐसा व्यवहार देखकर, पर कर भी क्या सकती थी? अब तो जैसे आदत-सी पड़ गई है। मीरा का भी अकेले में कब तक जी लगता? खेलना चाहती है, उनके पास जाने का प्रयास भी करती है, पर बच्चे भाग जाते हैं । स्कूल में उसे दाखिल नहीं करते। आख़िरकार धीरे धीरे इस मोटे मुँहवाली मीरा ने अपना मन मोड़ लिया । अकेलेपन से ऊब जाने की अपनी आदत उसने बदल डाली । बच्चे उस से दूर भाग जाते थे, तो अब वह भी उनकी परवाह छोड़कर, अकेले में बैठने का आनन्द उठाने लगी। घर के बाहर एक छोटा-सा पेड़ था और पेड़ के नीचे एक पत्थर | घर के काम में माँ का हाथ बटाकर उस पर अकेली बैठे बैठे वह मुहल्ले के उस पार दूर तक देखती रहती। पास कोई आ गया तो अपनी चुप्पी आप साधे हुए देखा-अनदेखा कर देती। बस, अब तो बाहर बैठी रहकर भी उसकी खामोशी बढ़ने लगी, खुदी खत्म होने लगी, मानसिकता विकसित होने लगी और अपनी भीतरी दुनिया में वह खो जाने लगी। उम्र भी अब बढ़ने लगी और उम्र के बढ़ने के साथ साथ उसकी तनहाई भी । ना, अब तनहाई तो उसके लिए बोझ नहीं, 'मौज' बन गई थी। इस मौज की मस्ती बढ़ने लगी। बाहर के खेल-खिलौने तो कब के छूट गए थे, मानों अब भीतर में कोई मज़ेदार खिलौना हाथ आने लग रहा हो! ___इस अकेली खेल रही 'मीरा' का नाम सुनते ही लोगों को गिरिधर गोपाल की दीवानी, मेड़ता की महारानी मीरा की याद आ जाती । परंतु दोनों में कितना अंतर था! वह प्रेमदीवानी फिर भी सयानी, और यह निरी अबोध नादान और पगली-सी। पर दिन बीतने पर यह खामोश तनहा मीरा अपने भीतर में कुछ अजीब-सा घट रहा पारुल-प्रसून ર૭

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