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- यों कहते छाया की माया, तोड़ रही दीवार... पार क्षितिज से -
तमस् विदीर्ण हुआ युगों का, फूटी तेज फुहार, परम पुरुष दीदार दिखलाए, दिव्यगगन - दरबार ‘देह-विदेह' से ‘महाविदेह' के 'खुले आज हैं द्वार' ।
पार क्षितिज से -
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( बेंगलोर, २४.१०.१९८८)
बिटिया ! तुझे हम रोकते थे, बांधते थे ....
तू मुक्त, मस्त, अनुरक्त थी
- तेरे अंतस्-गान आलापन में,
- सुशब्दबद्ध आलेखन में,
- ऊर्ध्वमुख सुचिंतन में ... 1 उन सभी में हम सदा सानुकूल फिर भी
इस बाघ -: -भेड़िये-से समाज की
भयजनित मर्यादाओं से डरकर,
तुझे हम 'ब्रेक' लगाते थे -
७. मुक्त- उन्मुक्त पारुल को
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- तेरे मुक्त साधना विहार में !!
अब वह रोकना नहीं रहा, बाँधना नहीं रहा,
स्थूल देह की मर्यादा- सीमाएँ गई ...
अब तेरे पास अधिक सक्षम, अधिक सूक्ष्म, सर्वसीमालांघ्य तेज-शरीर रहे बिटिया ...!!
पारुल - प्रसून
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