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उन सभी के द्वारा अब सतत लिखते रहना, गाते रहना, ऊर्ध्व-गगन में विहरते रहना !!!
और रुकना तभी हीकि जब तू प्राप्त कर ले, सिद्धशिला के सुपावन, सूक्ष्म, अलौकिक, दिव्य स्फटिक-शैल-शिखरों को
हम सभी को भी वहाँ का पंथ दीखलाती! (बेंगलोर, ३०.३.१९८९)
८. कवित्त-बिंदु वत्से पारुल! इस विराट, अंतहीन, अनादियात्रा के एक छोटे से कालखंड पर मेरी अंतस्-कल्पना की सुपुत्री का एक आदर्श स्त्री-साधिका का, मूर्तिमंत साकार रूप लेकर तुम आई। संगीत, शब्दशक्ति, सौम्यता, कारुण्य, पावित्र्य, प्रफुल्लित, प्रसन्नता, मधुरवाक्, अनथक योगसाधन, दर्शनगरिमा, परम-प्रशान्ति ... क्या-क्या, सबकुछ एक साथ संजोकर, अपनी जीवन-झोली में भरकर ले आई.... । उसे बाँट-बिखेर-बौछारकर, एक दिन अचानक ही, अनकहे-अल्विदा भी बिना कहे (जैसे क्वचित् तुम्हारी वह आदत थी)शायद पुनः अल्विदा कहने आने । बस ... . अपने सांत मुक्तिपथ पर शीघ्र ही पहुँचने, चल देने, शीघ्र ही यहाँ असमय ही, महाकरुणापूर्ण जीवनान्त से
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पारुल-प्रसून