Book Title: Parul Prasun
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 13
________________ ३. मन की नादानी मन के द्वार खुले थे फिर भी न जाने क्यों सूरज का प्रकाश बाहर ही फैलकर रह जाता है ! शब्दहीन मस्तिष्क में, शांत इस जीवन में, नादान मन ने किया प्रयास : रंग और सूर भरने का नीरव निशा में सपने सजाए सुखद जीवन के । निःशब्द, निर्विचार मस्तिष्क और शांत-प्रशांत जीवन में भी मन की नादानी रंग, सूर भरने की व्यर्थ चेष्टा करती है और अपना द्वार खुला होते हुए भी सूर्यप्रकाश भीतर में प्रवेश नहीं कर पाता । भीतर में पड़ी प्रशान्ति और रिक्तता को वैसे ही रहने दें तभी तो प्रवेश हो पाता है न, प्रकाश का, ज्ञान-भानु के प्रकाश का ? बीच में अंतराय बनकर आनेवाले नादान मन की हस्ती ही अवरोध बनती है। अंतस् में सत्तारूप में विराजमान ज्ञान के उद्घाटन में, अनावृत्तिकरण में जबतक मन की यह हस्ती है, न भीतर के ज्ञानप्रकाश का प्राकट्य हो पाता है, न बाहर के। ४. समय स्थगन समय! तू रुक जा थोड़ी देर ही सही। कुछ बिखरे पल फिर से समेट लूँ उतार लूँ दिल की गहराई में हमेशा के लिए। फिर मुझे छोड़ के न चले जाएँ; कुछ भूली हुई यादें पारुल-प्रसून ११

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