________________
मन चाहता है डूब जाएँ
कुछ पल के लिए ही .
शब्दों का हाहाकार और विचारों का विस्तार, वाणी का व्यापार और मन का संसार - इन सभी के पार तो है विराजित प्रशांत महासागर, अपने साथ में । भीगी भीगी शांत निस्पंद नीरवता में काल जब खो जाता है और अपना प्रिय ऐसा एकांत जब अस्तित्व धारण कर लेता है, तब प्रशांत महासागर तक पहुँचा जाता है और उसकी अतल गहराई में डूब जाने का आनंद पाया जा सकता है । आख़िर यह सागरवत् गम्भीर ही तो है अपना सिद्ध, बुद्ध, शुद्ध स्वरूप । उसकी सिद्धि पाने के लिए ही तो हम प्रार्थना करते रहे हैं, उस सिद्धलोक के सिद्धों से
“सिद्धा ! सिद्धि मम दिसंतु ।”
उस सिद्धलोक में खो जाने के प्रयास में परालोक के पारुल की शायद यह अंतिम शब्दकृति ।
१८
पारुल - प्रसून