Book Title: Parshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 15
________________ करने की ओर झुके व अपने देश की प्राचीन प्रथा को एकांगिता के दोष से मुक्त करने का मनोरथ व प्रयत्न करने लगे। पर अधिकतर ऐसा देखा जाता हैं कि उनका मनोरथ व प्रयत्न अभी तक सिद्ध नहीं हुआ। कारण स्पष्ट है। कॉलेज व यूनिवर्सिटी की उपाधि लेकर नई दृष्टि से काम करने के निमित्त आये हुए विश्वविद्यालय के अधिकांश अध्यापकों में वही पुराना एकांगी संस्कार काम कर रहा है। अतएव ऐसे अध्यापक मुंह से तो असांप्रदायिक व व्यापक तुलनात्मक अध्ययन की बात करते हैं पर उनका हृदय उतना उदार नहीं है । इससे हम विश्वविद्यालय के वर्तुल में एक विसंवादी चित्र पाते हैं । फलतः विद्यार्थियों का नया जगत् भी समीचीन दृष्टिलाभ न होने से दुविधा में ही अपने अभ्यास को एकांगी व विकृत बना रहा है । हमने विश्वविद्यालय के द्वारा पाश्चात्य विद्वानों की तटस्थ समालोचना मूलक प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाही पर हम भारतीय अभी तक अधिकांश में उससे वंचित हो रहे हैं। वेबर, मेक्समूलर, गायगर, लोयमन, पिशल, जेकोबी, ओल्डनबर्ग, शार्पेन्टर, सिल्वन लेवी, थॉमस, बेईल, बरो, शुबिंग, आल्सडोर्फ, मैडम कैया, वेशलर, सुजिको ओहिरा आदि विदेशी संशोधक विद्वान् आज भी संशोधन क्षेत्र में भारतीयों की अपेक्षा ऊँचा स्थान रखते हैं। इसका कारण क्या है इस पर हमें यथार्थ विचार करना चाहिए । पाश्चात्य विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम सत्यशोधक वैज्ञानिक दष्टि के आधार पर रखा जाता है। इससे वहाँ के विद्वान् सर्वांगीण दृष्टि से भाषाओं तथा इतर विषयों का अध्ययन करते कराते हैं। वे हमारे देश की रूढ़प्रथा के अनुसार केवल सांप्रदायिक व संकुचित दायरे में बद्ध होकर न तो भाषाओं का एकांगी अध्ययन करते हैं और न इतर विषयों का ही। अतएव वे कार्यकाल में किसी एक ही क्षेत्र को क्यों न अपना पर उनकी दष्टि व कार्यपद्धति सर्वांगीण होती है। वे अपने संशोधन क्षेत्र में सत्यलक्षी ही रह कर प्रयत्न करते हैं। हम भारतीय संस्कृति की अखण्डता व महत्ता की डींग हाँकें और हमारा अध्ययन-अध्यापन व संशोधन विषयक दृष्टिकोण खंडित व एकांगी हो तो सचमुच हम अपने आप ही अपनी संस्कृति को खंडित व विकृत कर रहे हैं। एम० ए०, डॉक्टरेट जैसी उच्च उपाधि लेकर संस्कृत साहित्य पढ़ाने वाले अनेक अध्यापकों को आप देखेंगे कि वे पूराने एकांगी पंडिनों की तरह प्राकृत का न तो सीधा अर्थ कर सकते हैं, न उसकी शुद्धि-अशुद्धि पहचानते हैं, और न छाया के सिवाय प्राकृत का अर्थ ही समझ सकते हैं। यही दशा प्राकृत के उच्च उपाधिधारकों की है। वे पाठ्यक्रम में नियत प्राकृतसाहित्य को पढ़ाते हैं तब अधिकांश में अंग्रेजी भाषान्तर का आश्रय लेते हैं, या अपेक्षित व पूरक संस्कृत ज्ञान के अभाव के कारण किसी तरह कक्षा की गाड़ी खींचते हैं । इससे भी अधिक दुर्दशा तो 'ऐन्श्यिन्ट इन्डियन हिस्ट्री एन्ड् कल्चर' के क्षेत्र में कार्य करने वालों की है। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश अध्यापक भी प्राकृतशिलालेख, सिक्के आदि पुरातत्त्वीय सामग्री का उपयोग अंग्रेजी भाषान्तर द्वारा ही करते हैं। वे सीधे तौर से प्राकृत भाषाओं के न तो मर्म को पकड़ते हैं और न उन्हें यथावत् पढ़ ही पाते हैं। इसी तरह वे संस्कृत भाषा के आवश्यक बोध से भी वंचित होने के कारण अंग्रेजी भाषान्तर पर ही निर्भर रहते हैं । यह कितने दुःख व लज्जा की बात है कि पाश्चात्य संशोधक विद्वान् अपने इस विषय के संशोधन और प्रकाशन के लिए अपेक्षित सभी भाषाओं का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं, जब कि हम भारतीय अपने ही प्राच्य भाषाओं का न तो पूरा अध्ययन ही करते हैं, और न ही पूरा उपयोग । ऐसी स्थिति में तत्काल परिवर्तन करना आवश्यक है। यह मेरे गुरुजो के मन की पीड़ा थी जो आज मेरी भी पीड़ा है। आवश्यक यह है कि संस्कृत, दर्शन एवं प्राचीन भारतीय इतिहास ( 2 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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