Book Title: Pap Punya Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 9
________________ पाप-पुण्य पाप-पुण्य में भाव तो दु:ख के ही आते हैं। इस समय पुण्यानुबंधी पापवाले जीव कम हैं। हैं ज़रूर पर उन्हें भी दूषमकाल बाधक है। क्योंकि ये पाप बाधक हैं। पाप अर्थात् क्या कि संसार व्यवहार चलाने में अड़चन आए वह पाप कहलाता है। यानी बैंक में बढ़ने की बात तो कहाँ गई पर यह रोज का व्यवहार चलाने के लिए भी कुछ न कुछ अड़चनें आती रहती हैं। ये अड़चनें आती हैं फिर भी मंदिर जाता है, विचार धर्म के आते हैं, उसे पुण्यानुबंधी पाप कहा है। पुण्य बाँधेगा पर यह दूषमकाल ऐसा है न कि इस पाप से ज़रा मुश्किलें आती हैं, इसलिए वास्तव में जैसे चाहिए वैसे पुण्य नहीं बँधते। अभी तो छूत लग ही जाता है न! मंदिर के बाहर जूते निकाले हों न तो दूसरे से पूछे कि क्यों भाई जुते यहाँ निकाले हैं? तब वह कहेगा कि उस तरफ से जूते चोरी हो जाते हैं, इसलिए यहाँ निकाले हैं। तब अपने मन में भी विचार आता है कि उस तरफ से ले जाते हैं, इसलिए दर्शन के समय भी चित्त ठिकाने नहीं रहता है! पापानुबंधी पुण्य पूर्व के पुण्य से आज सुख भोगता है, परन्तु भयंकर पाप के अनुबंध बाँधता है। अभी सब ओर पापानुबंधी पुण्य है। किसी सेठ का ऐसा बंगला हो तब सुख से बंगले में नहीं रह सकता। सेठ पूरा दिन पैसों के लिए बाहर होता है। जब कि सेठानी मोहबाज़ार में सुंदर साड़ी के पीछे होती है और सेठ की बेटी मोटर लेकर घूमने निकली होती है। नौकर अकेले घर पर होते हैं और पूरा बंगला मटियामेट हो जाता है। पुण्य के आधार पर सभी कुछ, बंगला मिला, मोटर मिली, फ्रिज मिला। ऐसा पुण्य हो फिर भी पाप के अनुबंध बाँधे, वैसे करतूत होते हैं। लोभ-मोह में समय जाता है और भोग भी नहीं सकते। पापानुबंधी पुण्यवाले लोग तो विषयों की लूटबाज़ी ही करते हैं। इसलिए तो बंगले हैं, मोटरें हैं, वाइफ है, बच्चे हैं, सबकुछ है पर पूरा दिन हाय, हाय, हाय, हाय, पैसे कहाँ से लाऊँ? ऐसे पूरे दिन निरे पाप ही बाँधता रहता है। इस भव में पुण्य भोगता है और अगले भव के पाप बाँध रहा है। पूरा दिन दौड़भाग-दौड़भाग और कैसा? बाय (खरीदो), बॉरो (उधार लो), एन्ड स्टील (और चुरा लो)। कोई नियम नहीं। बाय तो बाय, नहीं तो बॉरो, नहीं तो स्टील। किसी भी प्रकार से वह हितकारी नहीं कहलाता। अभी आपके शहर के आसपास पुण्य बहुत बड़ा दिखता है। वह सब पापानुबंधी पुण्य है। अर्थात् पुण्य है, बंगले हैं, मोटरें हैं, घर पर सारी सुविधाएँ हैं, वह सब पुण्य के आधार पर है, पर वह पुण्य कैसा है? उस पुण्य में से विचार खराब आते हैं कि किसका ले लूँ, कहाँ से लूट लूँ? कहाँ से इकट्ठा करूँ? किसका भोग लूँ? अर्थात् अणहक़ का भोगने की तैयारी होती है, अणहक़ की लक्ष्मी भी छीन लेते हैं, वह पापानुबंधी पुण्य है। मनुष्यत्व अर्थात् मोक्ष जाने का टाइम मिला है, जब कि यह तो इकट्ठा करने में पड़ा हुआ है, वह पापानुबंधी पुण्य है। उसमें पाप ही बँधते रहते हैं, यानी वह भटकाए ऐसा पुण्य है। कितने लोग तो छोटे स्टेट के ठाकुर हों न, ऐसे ऐशो-आराम से जीते हैं। करोड़ो रुपये के फ्लेट में रहते हैं। पर ज्ञानी क्या देखते होंगे? ज्ञानी को करुणा आती है बेचारों के लिए। जितनी करुणा बोरीवलीवालों (मुंबई का मध्यमवर्गीय इलाका) के ऊपर नहीं आती, उतनी करुणा इनके ऊपर आती है। ऐसा किसलिए? प्रश्नकर्ता : क्योंकि यह तो पापानुबंधी पुण्य है इसलिए। दादाश्री : पापानुबंधी पुण्य तो है, पर ओहोहो! इन लोगों के बर्फ जैसे पुण्य हैं। जैसे बर्फ पिघलता है, वैसे निरंतर पिघलता ही रहता है, वह ज्ञानियों को दिखता है कि यह पिघल रहा है ! मछली तड़पती है, वैसे तड़प रहे हैं! इसके बदले तो बोरीवलीवाले के पानी जैसे पुण्य, उसमें भला पिघलने का क्या रहा? पर यह तो पिघल रहा है। उन भोगनेवालों को पता नहीं और उसका सब कढ़ापा-अजंपा (कुढ़न, क्लेश, बेचैनी, अशांति, घबराहट), भोगने का रहा ही कहाँ? अभी इस कलियुग में भोगना कैसा यह? यह तो कुरूप दिखता है उल्टा। आज से साठ वर्ष पहले जो रूप था, वैसा तो रूप ही नहीं है अभी। शांतिवाला मुंबई था।Page Navigation
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