Book Title: Pap Punya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 23
________________ पाप-पुण्य प्रश्नकर्ता : पुण्य-पाप के ही अधीन हो तो फिर टेन्डर भरने को कहाँ रहा? दादाश्री : यह टेन्डर भरा जाता है, वह पाप-पुण्य के उदय के अनुसार ही भरा जाता है। इसलिए मैं कहता भी हूँ कि 'टेन्डर' भरो, पर मैं जानता हूँ कि किस आधार पर टेन्डर भरा जाता है। इन दोनों कानून के बाहर चल सके वैसा नहीं है। मैं बहुत लोगों को मेरे पास 'टेन्डर' भरकर लाने को कहता हूँ। पर कोई भरकर नहीं लाया है। किस तरह भरें? वह पाप-पुण्य के अधीन है। इसलिए पाप का उदय हो तब बहुत भाग-दौड़ करेगा तो, बल्कि जो है वह भी चला जाएगा। इसलिए घर जाकर सो जा और थोड़ा-थोड़ा साधारण काम कर, और पुण्य का उदय हो तो भटकने की ज़रूरत ही क्या है? घर बैठे आमने-सामने थोड़ा-सा काम करने से सब आ मिलता है, इसलिए दोनों ही स्थितियों में भाग-दौड़ करने को मना करते हैं। बात को सिर्फ समझने की ही ज़रूरत है। पुण्य के खेल के सामने मिथ्या प्रयत्न क्यों? पुण्य फल देने के लिए सम्मुख हुआ है, तो किसलिए मिथ्या प्रयत्न में लगा है? और यदि पुण्य फल देने के लिए सम्मख नहीं हुआ तो दखल किसलिए करता है बिना काम के? सम्मुख नहीं हुआ और तू दख़ल करेगा तो भी कुछ होनेवाला नहीं है। और सम्मुख हुआ हो तो दखल किसलिए करता है तू? पुण्य जब फल देने को तैयार होगा तो देर ही नहीं लगेगी। पाप-पुण्य की लिन्क... कोई बाहर का व्यक्ति मेरे पास व्यवहार से सलाह लेने आए कि, 'मैं चाहे जितना सिरफोडी करता हूँ तो भी कुछ होता नहीं है।' तब मैं कहता हूँ, 'अभी तेरा उदय पाप का है। तू किसीके वहाँ से रुपये उधार लेकर आएगा तो रास्ते में तेरी जेब कट जाएगी ! इसलिए अभी आराम से घर बैठकर, तू जो शास्त्र पढ़ता हो वह पढ़ और भगवान का नाम लेता रह।' पाप-पुण्य हम १९६८ में जयगढ़ की जेटी बना रहे थे। वहाँ एक कान्ट्रैक्टर मेरे पास आया। वह मुझसे पूछने लगा, 'मैं मेरे गुरु महाराज के पास जाता हैं। हर साल मेरे पैसे बढ़ते ही रहते हैं। मेरी इच्छा नहीं, फिर भी बढ़ते हैं, तो क्या वह गुरु की कृपा है?' मैंने उसे कहा, 'वह गुरु की कृपा है, वैसा मानना मत। यदि पैसे चले जाएँगे तो तुझे ऐसा होगा कि लाओ, गुरु को पत्थर मारूँ!' इसमें गुरु तो निमित्त हैं, उनके आशीष निमित्त हैं। गुरु को ही चाहिए हों तो चार आने नहीं मिलें न! इसलिए फिर उसने मुझसे पूछा कि, 'मुझे क्या करना चाहिए?' मैंने कहा, 'दादा का नाम लेना।' अभी तक तेरी पुण्य की लिन्क आई थी। लिन्क मतलब अंधेरे में पत्ता उठाए तो चोगा आए, फिर पंजा आए, फिर वापिस उठाए तो छक्का आए। तो लोग कहें कि, 'वाह सेठ, वाह सेठ, कहना पड़ेगा।' वैसा तुझे एक सौ सात बार तक सच्चा पडता है। पर अब बदलनेवाला है। इसीलिए सावधान रहना। अब तू निकालेगा तो सत्तावन के बाद तीन आएगा और तीन के बाद एक सौ ग्यारह आएगा! तब लोग तुम्हें बुद्धू कहेंगे। इसलिए इन दादा का नाम छोड़ना नहीं। नहीं तो मारा जाएगा। फिर हम मुंबई आ गए। वह आदमी दो-चार दिन बाद यह बात भूल गया। उसे फिर बहुत भारी नुकसान हुआ। इसलिए उन पति-पत्नी दोनों ने खटमल मारने की दवाई पी ली! पर पुण्यशाली इतना कि उसका भाई ही डॉक्टर था। वह आया और बच गया! फिर वह मोटर लेकर दौड़ता हुआ मेरे पास आया। मैंने उसे कहा, 'इन दादा का नाम लेते रहना और फिर ऐसा कभी भी मत करना।' तब फिर वह नाम लेता रहा। उसके पाप सब धुल गए और सब ठीक हो गया। 'दादा' बोलें उस घड़ी पाप पास में आते ही नहीं। चारों तरफ फिरते रहते हैं पर छूते नहीं आपको। आप झोंका खाते हों, तो उस घड़ी छ जाते हैं। रात को नींद में नहीं छुते। यदि जब तक जग रहे हैं तब तक बोलते रहे और सुबह में उठते ही बोले हों, तो बीच का समय उस स्वरूप कहलाता है।

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