Book Title: Pap Punya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 42
________________ ७३ पाप-पुण्य पुण्यानुबंधी पुण्य 'ज्ञानी पुरुष' से भेंट करवा देता है! अब वह पुण्यानुबंधी पुण्य किसे कहा जाता है? कि जिन्हें 'दादा भगवान' मिल जाएँ। करोड़ों जन्मों तक नहीं मिलें वैसे 'दादा', वे बस एक घंटे में हमें मोक्ष दे देते हैं। मोक्ष का सुख चखाते हैं, अनुभूति करवा देते हैं, कभी ही वे दादा भगवान मिलते हैं, मुझे भी मिल गए और आपको भी मिल गए, देखो न! प्रश्नकर्ता : हम कहाँ कुछ कमाकर लाए हैं? यह तो आपकी कृपा दादाश्री : पुण्य अर्थात् क्या कि आप मुझे मिल गए, वह आपके पास कोई हिसाब था उस आधार पर! नहीं तो मुझे मिलना, वह बहुत मुश्किल है। इसलिए मिलना वह आपका पुण्य है एक प्रकार का, और मिलने के बाद आएँ, टिके रहें, तो बहुत ऊँची बात है। पुण्य के साथ चाहिए कषाय मंदता प्रश्नकर्ता : समकित के लिए प्रयत्न ज़रूरी नहीं हैं? दादाश्री : नहीं, प्रयत्न तो अपने आप, सहज प्रयत्न होना चाहिए। यह तो खेत जोतते हैं ये लोग! अर्थात् आनेवाले भव में फल लेने के लिए। समकित में फलरहितवाला होना चाहिए। यह तो जप-तप आदि जो-जो करते हैं न, उसका पुण्य बँधता है और उसका फल मिलता है। प्रश्नकर्ता : उसका जो भी फल मिले तो वह समकित के रूप में ही मिलना चाहिए न? दादाश्री : नहीं, नहीं। समकित और इसका लेना-देना नहीं है। वे सारे फल भौतिक मिलते हैं। देवगति मिलती है, समकित तो अलग ही चीज़ है। वे तीन नियम पुण्यानुबंधी पुण्य के समकित प्राप्ति के लिए पुण्यानुबंधी पुण्य चाहिए। मोह है वह टूटना चाहिए, क्रोध-मान-माया-लोभ घटने चाहिए। तो वह समकित की ओर पाप-पुण्य जाएगा। नहीं तो फिर समकित होगा ही किस तरह? इन लोगों की तो क्रोध-मान-माया-लोभ बढ़ें वैसी क्रियाएँ हैं सारी। प्रश्नकर्ता : क्रोध-मान-माया-लोभ कैसे कम होते हैं और पुण्यानुबंधी पुण्य कैसे बँधते हैं? दादाश्री : हमें सिर्फ मोक्ष जाने की इच्छा होनी चाहिए और उस इच्छार्थ जो-जो किया जाए, वह क्रिया पुण्यानुबंधी पुण्य बाँधती है, क्योंकि हेतु मोक्ष का है इसलिए। फिर अपने पास जो आया हो वह औरों के लिए लुटा दें! उसे जीवन जीना आया कहा जाता है। पागलपन से नहीं, समझदारी से लटा दें। पागलपन से शराब-वराब पीता हो, उसमें कुछ भला नहीं होता। कभी भी व्यसन नहीं करे और औरों के लिए लुटाए, वह पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है। उससे आगे पुण्यानुबंधी पुण्य कौन-सा? किसी भी क्रिया में बदले की आशा नहीं रखे, सामनेवाले को सुख देते समय किसी भी प्रकार के बदले की इच्छा नहीं रखे, वह पुण्यानुबंधी पुण्य ! ज्ञान ही छुड़वाए भटकन में से लोगों ने जो जाना है, वह लौकिक ज्ञान है। सच्चा ज्ञान तो वास्तविक होता है और वास्तविक ज्ञान हो, वह किसी भी प्रकार का अजंपा होने नहीं देता। वह अंदर किसी प्रकार का पज़ल खडा होने नहीं देता। इस भ्रांतिज्ञान से तो निरे पजल ही खड़े होते रहते हैं, और वे पज़ल फिर सोल्व नहीं होते। बात सच्ची है, पर वह समझ में आनी चाहिए न? मतलब समझ में फिट हुए बिना कभी भी हल नहीं आता। समझ में फिट होना चाहिए। समझ में आ सके उसके लिए पाप धोने पड़ते हैं। पाप नहीं धुलें तब तक ठिकाने नहीं आता है। ये सब पाप ही उलझाते हैं। पाप रूपी और पुण्य रूपी पच्चर (रुकावट) है बीच में। वही मनुष्य को उलझाते हैं न! अनंत जन्मों से भटकते-भटकते इस भौतिक के ही पीछे पड़े हुए हैं। इस भौतिक में अंतर शांति नहीं होती है। रुपयों का बिस्तर बिछा दें

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