Book Title: Pap Punya
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 10
________________ पाप-पुण्य अब वह रूप ही नहीं है। साठ साल पहले तो मरीन लाईन्स पर रहते हो न तो देवगति जैसा लगता था। अभी तो हकबकाए से दिखते हैं वहाँ! पूरा दिन अकुलाए हुए और परेशान से ऐसे-वैसे लोग दिखते हैं। उन दिनों तो सुबह पहले बैठकर पेपर पढ़ रहे होते, तब ऐसा लगता था जैसे सारे देवी-देवता पेपर पढ़ रहे हों। कढ़ापा नहीं, अजंपा नहीं। सुबह पहले मुंबई समाचार आया हो, और अन्य पेपर थे पर उनके नाम आलोप हो गए हैं सभी। मैं भी मरीन लाईन्स उतरता था। परन्त लोगों को तो शांति बहुत थी उस समय! इतनी हाय-हाय नहीं थी। इतना लोभ नहीं, इतना मोह नहीं, इतनी तृष्णा नहीं और शुद्ध घी में तो शंका ही नहीं करनी पड़ती थी, शंका ही नहीं आती थी। अभी तो शुद्ध लेने जाएँ तो भी नहीं मिलता। पाप-पुण्य में नहीं आती, पर इन दुःख की बातों के बारे में तो बहुत समझ में आ जाता है। दादाश्री : वह तो समझ में आएगा, सभी को समझ में आएगा, यह दीये जैसी बात है! अरे मोक्ष की बात को रखो दूर, पर दुःख का निवारण तो हुआ आज! संसारी दुःख का अभाव तो हुआ! और वही मुक्ति की पहली निशानी है। दु:खमुक्त हुए, संसार के दु:खों से। ओवरड्राफट का व्यय एडवान्स में! चार घर के मालिक, परन्तु घर पर पाँच रुपये नहीं होते और भावनगर के राजा जैसा रौब होता है! तब उस अहंकार का क्या करना प्रश्नकर्ता : दादा, पर कितनी बार व्यवहार में ऐसा होता है कि मनुष्य ऐसा सब रखता है न, उसे ऐसा सब मिल आता है। मलबार हिल जितना पुण्य हो, पर बर्फ के पहाड़ हैं वे पुण्य । बड़ा मलबार हिल जितना बर्फ हो, परन्तु वह दिनोंदिन क्या होता जाएगा? चौबीसों घंटे पिघलता ही रहेगा निरंतर। पर उसे खुद को मालूम नहीं इस मलबार हिल में कि इन सब जगह रहनेवाले लोगों को, टोप क्लास के लोगों को कि अपना क्या हो रहा है? दिन-रात पुण्य पिघलते ही रहते हैं, ये तो करुणा खाने जैसे हाल हैं! यहाँ से क्या खाते-खाते, क्या खाना पड़ेगा, वह खबर नहीं इसलिए यह सब चल रहा है। पापानुबंधी पुण्य है। पूरा दिन ही हाय पैसा, हाय पैसा ! कहाँ से पैसे इकट्ठे करूँ, पूरे दिन उसके ही विचारों में, कहाँ से विषयों का सुख भोग लूँ, कुछ ऐसा करूँ, वैसा करूँ, पैसा! हाय, हाय, हाय, हाय। और देखो बड़े-बड़े पहाड़ पुण्य के पिघलने लगे हैं। वह पुण्य खतम हो जानेवाला है, वापिस, थे वैसे ही, दोनों हाथ खाली के खाली। फिर चार पैरों में जाकर ठिकाना नहीं पड़ेगा। इसलिए ज्ञानी करुणा खाते हैं कि अरेरेरे! इस दु:ख में से छूटे तो अच्छा। कुछ अच्छा संयोग मिल जाए तो अच्छा। देखो न इनको संयोग अच्छा मिल गया है। ये सेठ तो कब वहाँ से छूटें और कब यहाँ पर आ जाएँ, ऐसी हमारी इच्छा ज़रूर है पर कोई मेल नहीं पड़ता न और जिनका मेल पड़ता है वे आते भी हैं फिर। प्रश्नकर्ता : दादा, दूसरे पढ़नेवालो को मोक्ष की अन्य बातें समझ दादाश्री : मिल आता है, पर सारे पाप बाँधकर मिलता है। उसका नियम ही ऐसा है, तेरा सबकुछ खर्च करके, तेरा काउन्टर वेट रखकर तू यह लेता है और आज नहीं हो तो ओवरड्राफ्ट लेता है। वह ओवरड्राफ्ट लेकर फिर मनुष्य में से जानवर में ही जाता है। उठापटक करके लिया हुआ काम का नहीं है, वह तो अपने पुण्य का सहज मिला हुआ होना चाहिए। इसलिए मिल जाता है, पर सभी ओवरड्राफ्ट लेते हैं। मन में से चोरी के विचार जाते नहीं, झूठ के विचार, कपट के विचार जाते नहीं हैं, प्रपंच के विचार जाते नहीं हैं। फिर क्या, निरे पाप ही बँधते रहेंगे न? यह तो सब नहीं होना चाहिए, मिल जाए तो भी! इसलिए मैं तो भेख (संन्यास) लेने को तैयार था कि इस तरह यदि दोष बँधते हों तो संन्यास लेना अच्छा। निरी भयंकर उपाधियाँ, इतने ताप में उबल गए! अज्ञानता में तो बहुत समझदार व्यक्ति, एक घंटे ही यदि उबलता है, उस उमस के कारण मन में ऐसा होता है कि अरे, अब कुछ नहीं चाहिए। मोटी बुद्धिवाले को उमस

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