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रायचंद्रगुणस्थानकमारोहण. १. अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
अडोल आसन ने मनमा नहीं क्षोभता, क्यारे थइशुं बाह्यांतर निग्रंथ जो?
परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो. अपूर्व सर्व संबंधनुं बंधन तिक्ष्ण छेदीने, | १२. घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप नहीं, विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो? अपूर्व० सरस अन्ने नहीं मनने प्रसन्न भाव जो; २. सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी,
रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो;
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो. अपूर्व० अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहीं, | १३. एम पराजय करीने चारितमोहनो, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो. अपूर्व०
आq त्यां ज्यां करण अपूर्व भाव जो; ३. दर्शनमोह व्यतीत थइ उपज्यो बोध जे,
श्रेणी क्षपकतणी करीने आरुढता, देह भिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो;
अनन्य चिंतन अतिशय शुद्ध स्वभाव जो. अपूर्व० तेथी प्रक्षीण चारितमोह विलोकिये,
१४. मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी, वत्तें एवं शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो. अपूर्व० स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोह गुणस्थान जो, ४. आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी,
अंत समय त्यां पूर्णस्वरूप वीतराग थइ, मुख्यपणे तो वत्तें देहपर्यंत जो,
प्रगटा निज केवलज्ञाननिधान जो. अपूर्व० घोर परिषह के उपसर्गभये करी,
१५. चार कर्म घनघाती ते व्यवच्छेद ज्यां, आवी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो. अपूर्व०
भवनां बीजतणो आत्यंतिक नाश जो; ५. संयमना हेतुथी योगप्रवर्त्तना,
सर्वभाव ज्ञाता दृष्टा सह शुद्धता, स्वरूपलक्षे जिनआज्ञा आधीन जो,
कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो. अपूर्व० ते पण क्षण क्षण घटती जाती स्थितिमां, १६. वेदनीयादि चार कर्म वर्ते जहां,
अंते थाये निजस्वरूपमा लीन जो. अपूर्व० बळी सीदरीवत् आकृति मात्र जो; ६. पंच विषयमा रागद्वेष विरहितता,
ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छ, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो.
आयुष् पूर्णे, मटिये दैहिकपात्र जो. अपूर्व० द्रव्य, क्षेत्र ने काळ भाव प्रतिबंधवण,
१७. मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा, विचरतुं उदयाधीन पण वीत लोभ जो. अपूर्व० छूटे जहां सकळ पुद्गल संबंध जो; ७. क्रोधप्रत्ये तो वत्तें क्रोधस्वभावता,
एवं अयोगिगुणस्थानक त्यां वर्ततुं, मानप्रत्ये तो दीनपणानुं मान जो;
'महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो. अपूर्व० मायाप्रत्ये माया साक्षी भावनी,
१८. एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, लोभप्रत्ये नहीं लोभ समान जो. अपूर्व० । पूर्णकलंकरहित अडोलस्वरूप जो; ८. बहु उपसर्गक प्रत्ये पण क्रोध यहीं,
शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, वंदे चक्रि तथापि न मळे मान जो;
अगुरु, लघु, अमूर्त सहजपदरूप जो. अपूर्व० देह जाय पण माया थाय न रोममा,
१९. पूर्व प्रयोगादि कारणना योगथी, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो. अपूर्व० |
ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो; ९. नग्नभाव, मुंडभाव सहअमानता,
सादि अनंत अनंत समाधिसुखमां, अदंतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो,
अनंत दर्शन, ज्ञान, अनंत सहित जो. अपूर्व० केश, रोम, नख, के अंगे श्रृंगार नहीं,
२०. जे पद श्री सर्वज्ञे दीठं ज्ञानमां, द्रव्यभाव संयममय निग्रंथ सिद्ध जो. अपूर्व |
कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; १०. शत्रु मित्रप्रत्ये वत्तें समदर्शिता,
तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते \ कहे ! मान अमाने वत्तें तेज स्वभाव जो,
अनुभवगोचर गात्र रह्यं ते ज्ञान जो. अपूर्व० जीवित, के मरणे नहीं न्यूनाधिकता,
| २१. एह परमपदप्राप्तिनुं कर्यु ध्यान में, भव मोक्षे पण शुद्ध वत्तें समभाव जो. अपूर्व०
गजावगर ने हाल मनोरथरूप जो, ११. एकाकी विचारतो वळी श्मशानमां,
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, वळी पर्वतमा वाघ सिंह संयोग जो;
प्रभुआज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो. अपूर्व०