Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ अरहन्त का स्वरूप पंच परमेष्ठी प्रथम तो वे सर्वज्ञ हैं, उनके ज्ञान में समस्त लोकालोक के त्रिकाल सम्बन्धी चराचर पदार्थ एक समय में झलकते हैं - ऐसी तो ज्ञान की प्रभुत्व शक्ति है। वे वीतरागी भी हैं। मात्र सर्वज्ञ होते और वीतरागी नहीं होते तो उनमें परमेश्वरपना सम्भव नहीं होता तथा यदि मात्र वीतरागी होते और सर्वज्ञ न होते तो भी पदार्थों के स्वरूप की अज्ञानता से सम्पूर्ण जानने में कैसे समर्थ होते ? इन दो दोषों से संयुक्त को परमेश्वर कौन मानता? इसलिए जिनमें ये दो दोष - एक तो राग-द्वेष और दूसरा अज्ञान नहीं है, वे ही परमेश्वर हैं और वे ही सर्वोत्कृष्ट हैं । इन दोनों दोषों से रहित एक अरहन्तदेव ही हैं, अत: वे ही सर्वप्रकार से पूज्य हैं। ___ यदि वे सर्वज्ञ, वीतराग भी होते और तारने को समर्थ न होते तो प्रभुत्वपने में कमी रह जाती है; इसलिए उनमें तारणशक्ति भी पाई जाती है। कुछ जीव तो भगवान का स्मरण करके ही भवसमुद्र से तिरते हैं, कुछ भक्ति से ही तिरते हैं, कुछ स्तुति से ही तिरते हैं और कुछ ध्यान करके ही तिरते हैं - इत्यादि एक गुण की आराधना कर मुक्ति प्राप्त करते हैं। ___ भगवान को खेद उत्पन्न नहीं होता, ऐसी महन्त पुरुषों की अत्यन्त महान शक्ति है। उन्हें स्वयं को तो उपाय नहीं करना पड़ता, उनके अतिशय से ही उनके सेवक का स्वयमेव ही भला हो जाता है। प्रतिकूल/विरोधी पुरुषों का स्वयमेव बुरा हो जाता है। यदि पुरुष शक्तिहीन हो तो शिथिल होकर दूसरों का भला-बुरा करना चाहे; परन्तु उससे कार्य सिद्ध होगा ही - ऐसा नियम नहीं है, होने योग्य ही होता है। अरहन्तदेव अनन्त गुणों से शोभित हैं। भव्यजीवों के पुण्य के उदय से आपकी दिव्यध्वनि इस भाँति प्रकट हुई है कि एक अन्तर्मुहूर्त में ऐसा तत्त्वोपदेश करे कि यदि उसकी रचना को शास्त्रों में लिखें तो उन शास्त्रों से यह अनन्त लोक भर जाए। अत: हे भगवन् ! आपके गुणों की महिमा कैसे करें ? हे भगवन् ! आपकी वाणी का अतिशय ऐसा है कि वाणी खिरती तो है अनक्षररूप और अनुभय भाषारूप; किन्तु भव्यजीवों के कान के निकट जाकर पुद्गल-वर्गणा इसप्रकार शब्दरूप परिणमन कर जाती है कि असंख्यात चार प्रकार के देव और देवांगनाओं ने जो संख्यात वर्ष पर्यन्त प्रश्न विचारे थे तथा संख्यात मनुष्य एवं तिर्यञ्चों ने जो प्रश्न बहुत काल पर्यन्त विचारे थे, उनको वह वाणी अपनी-अपनी भाषामय प्रश्नों के उत्तररूप हो जाती है। इसके उपरान्त भी अनेक वाक्यों का उपदेश होता रहे, तो भी बाद में अनन्तानन्त तत्त्वों का निरूपण करने में सफल ही होती है। जिसप्रकार मेघ तो अपरम्पार एक जाति के जल की वर्षा करे, पश्चात् आडू और नारियल जाति के वृक्ष अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार जल ग्रहण कर, अपने-अपने स्वभावरूप से परिणमन करते हैं। नदी-तालाब, कुआँ-बावड़ी आदि जलाशय अपनी योग्यतानुसार जलधारण करें और बहुत-से मेघों का जल फलवान होता है, इसीप्रकार जिनवाणी का उपदेश जानना चाहिए। अरहन्तदेव का उपदेश - उस वाणी में भगवान ने इस भाँति उपदेश दिया है कि - षद्रव्य अनादि-निधन हैं। इनमें पाँच द्रव्य अचेतन/ जड़ हैं। जीव नामक पदार्थ चेतनद्रव्य है। उनमें पुद्गल मूर्तिक और शेष पाँच अमूर्तिक हैं। इन्हीं छह द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं। जहाँ एक आकाशद्रव्य ही पाया जाए. पाँच द्रव्य न पाए जाएँ: उसे अलोकाकाश कहते हैं। लोक-अलोक का समुदायरूप एक आकाशद्रव्य अनन्तप्रदेशी है। तीन लोक प्रमाण असंख्यातप्रदेशी एक धर्मद्रव्य

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