Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ पंच परमेष्ठी ३२ मैं साक्षात् अमूर्तिक, अखण्ड प्रदेशों को धारण करनेवाला हूँ और उनमें विशेष ज्ञान गुण को धारण किए हुए हूँ। ऐसा तीन प्रकार से संयुक्त मेरा स्वरूप, उसे मैं भलीभाँति जानता हूँ और अनुभव करता हूँ। इन तीन गुणों की जो मुझे प्रतीति है, वही कहता हूँ तीन गुणों की प्रतीति - कोई मेरे पास आकर ऐसा झूठ ही कहता है कि “तुम चैतन्यरूप नहीं हो और तुम में परिणमन गुण भी नहीं है - यह बात अमुक ग्रन्थ में कही है”- ऐसा मुझसे कहे, तब मैं उससे कहूँ 'रे दुर्बुद्धि ! अरे बुद्धिरहित ! तुम मोह से ठगाये गए हो, तुम्हें कुछ भी सुध नहीं, तुम्हारी बुद्धि ठगी गई है।" तो वह पुरुष कहता है- “क्या करूँ ? अमुक ग्रन्थ में कहा है"ऐसा मुझसे कहे तो मैं जो पर का देखन जाननहारा प्रत्यक्ष चैतन्यवस्तु हूँ; उसके कहे को कैसे मानूँ ? तब उससे कहता हूँ - “शास्त्र में ऐसा मिथ्या नहीं कहा जाता - यह नियम है। जैसे सूर्य कभी शीतलतारूप नहीं हुआ और अभी भी नहीं है, आगे भी नहीं होगा।" वह मुझे फिर से कहता है - आज सूर्य शीतलरूप उदित हुआ, इसे मैं कैसे मानूँ ? कदाचित् नहीं मान सकता; परन्तु तुम असत्य ही सर्वज्ञ का नाम लेकर ऐसा कहते हो - “ तुम चेतन नहीं हो और तुम्हारी परिणति / परिणमन भी नहीं" - अतः मैं यह बात कदापि नहीं मान सकता। मैं क्या नहीं मानता ? दो गुणों के बात की तो मुझे जिन-आज्ञा से प्रतीति है और अनुभव से भी प्रतीति है तथा तीसरे प्रदेशत्व गुण का भी मुझे आज्ञा से और अनुभव से एकदेश प्रमाण है। कैसे ? क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि सर्वज्ञदेव का वचन झूठा नहीं होता, इसलिए तो आज्ञाप्रमाण है और मैं यह भी जानता हूँ कि मुझे मेरा सिद्ध का स्वरूप ३३ अमूर्तिक आकार नहीं दिखता, अतः यह अनुभवप्रमाण है। तब अनुभव में प्रमाण कैसे हो ? मैं अनुमान से जानता हूँ कि प्रदेशों के आश्रय बिना चैतन्य गुण किसके सहारे रहेगा ? और प्रदेशों के बिना गुण कदापि नहीं होते - यह नियम है। जैसे भूमि के बिना वृक्षादि गुण किसके सहारे होंगे; वैसे ही प्रदेश बिना गुण किसके सहारे हों ? ऐसे विचार से अनुभव भी आता है और आज्ञा से प्रमाण भी होता है। यदि कोई मेरे पास आकर झूठा भी ऐसा कहे कि अमुक ग्रन्थ में यह बात कही है कि - "तुमने पहले तीन लोक प्रमाण प्रदेशों का श्रद्धान किया था, अब अन्य ग्रन्थ में इस भाँति निकला है कि आत्मा के प्रदेश धर्मद्रव्य के प्रदेशों से कम हैं। " तब मैं ऐसा विचारता हूँ - सामान्य शास्त्र की अपेक्षा विशेष बलवान होता है, अत: इसीप्रकार होगा। मेरे अनुभव में तो कोई निर्णय (निर्धार) नहीं होता और विशेष ज्ञाता नहीं दिखते हैं; इसलिए मैं सर्वज्ञ के वचन जानकर प्रमाण करता हूँ। अब यदि कोई मुझसे यह कहे- तुम जड़, अचेतन, मूर्तिक, परिणति से रहित हो तो मैं यह बिलकुल नहीं मान सकता, यह मुझे निःसन्देह है - ऐसा मुझे करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों विष्णु, करोड़ों नारायण, करोड़ों रुद्र आकर भी कहें तो भी मैं तो यह ही जानूँगा कि ये तो पागल हो गए हैं, मुझे ठगने के लिए आए हैं अथवा परीक्षा ले रहे हैं। भावार्थ - यह जो मेरी ज्ञान परिणति है, यह मैं स्वयं ही हूँ, यह स्वयं ही होती है। जो इसे जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है; इसके जाने बिना मिथ्यादृष्टि रहता है । अनेकप्रकार के गुणों के स्वरूप का एवं पर्यायों के स्वरूप का जैसे-जैसे ज्ञान होता है, वैसे-वैसे ज्ञान कार्यकारी होता है; परन्तु मुख्यरूप से इन दो का ज्ञान अवश्य होना चाहिए ऐसा लक्षण जानना ।

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