Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ पंच परमेष्ठी ६० सेवन करने से जीव का उद्धार कैसे हो ? यदि उनके ही सेवन करने से उद्धार हो, तो जीव का बुरा किनके सेवन करने से हो ? जैसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, आरम्भ - परिग्रह आदि जो महापाप हैं, उनके ही सेवन करने से यदि स्वर्गादि के सुख को पाये, तो नरकादि के दुःख क्या करने से पायें ? वह तो दिखाई नहीं देता । और भी कहते हैं कि - देखो, इस जगत में उत्कृष्ट वस्तुएँ थोड़ी ही दिखाई देती हैं; जैसे कि हीरा, माणिक, पन्ना जगत में थोड़े हैं; कंकरपत्थर आदि बहुत हैं। राजा, बादशाह आदि महन्त पुरुष थोड़े हैं और रंकादिक पुरुष बहुत हैं । धर्मात्मा पुरुष थोड़े हैं और पापी पुरुष बहुत हैं । इसप्रकार अनादिनिधन वस्तु का स्वभाव स्वयमेव ही बना है। उसके स्वभाव को मिटाने के लिए कोई समर्थ नहीं है। इसलिए तीर्थंकर ही सर्वोत्कृष्ट हैं, जो इससमय विदेहक्षेत्र में पाये जाते हैं। कुदेवों का वृन्द / समूह वह वर्तमान काल में निरन्तर अगणित पाया जाता है, उनमें से किस-किस कुदेव को पूजें ? वे परस्पर रागी -द्वेषी हैं, उनमें कोई कहें - मुझे पूजो, कोई कहें- मुझे पूजो और पूजनेवाले से खाने को माँगे तथा यह कहें- “मैं बहुत दिनों का भूखा हूँ।” जब वे ही भूखे हैं तो उत्कृष्ट वस्तु देने में वे कैसे समर्थ होंगे ? जिसप्रकार कोई रंकपुरुष भूख से पीड़ित होकर घर-घर से अन्न का दाना, रोटी का टुकड़ा एवं जूठन आदि माँगता फिरता हो; और कोई अज्ञानी पुरुष उससे उत्कृष्ट धन आदि सामग्री माँगे तथा उनके लिए उसकी सेवा करे, तो वह पुरुष क्या हँसी का पात्र नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। इसलिए श्रीगुरु कहते हैं - "हे भाई! तुम मोह के वशीभूत होकर आँखों देखी वस्तु झूठी मत मानो। जीव इस भ्रमबुद्धि से ही अनादिकाल से, जैसे थाली में मूँग रुलती है / इधर से उधर लुढ़कती है, वैसे ही रुल ६१ रहा है।" जैसे किसी पुरुष को तो तीव्र दाहज्वर का रोग लग रहा हो और अज्ञानी वैद्य तीव्र उष्णता का ही उपचार करे तो वह पुरुष कैसे शान्ति को प्राप्त हो सकता है ? साधु का स्वरूप वैसे ही यह जीव अनादि से मोह से दग्ध हो रहा है तथा इस मोह की वासना इस जीव के स्वयमेव ही बिना उपदेश के ही बन रही है । उससे तो आकुल-व्याकुल तथा महादुःखी हो रहा है, पुन: ऊपर से गृहीत मिथ्यात्वादि का बारम्बार सेवन करता है तो उसके दुःख का क्या पूछना है ? अगृहीत मिथ्यात्व से गृहीत मिथ्यात्व का फल अनन्तगुना खोटा अर्थात् दुःखदायी होता है। सो यह गृहीत मिथ्यात्व तो द्रव्यलिंगी मुनि सर्वप्रकार छोड़ा है और अगृहीत मिथ्यात्व के भी अनन्तवें भाग इतना हलका अगृहीत मिथ्यात्व उनके पाया जाता है। वे नानाप्रकार के दुर्धर तपश्चरण करते हैं, अट्ठाईस मुलगुण पालते हैं, बाईस परीषह सहन करते हैं, छियालीस दोष टालकर आहार लेते हैं तथा अंशमात्र कषाय नहीं करते हैं। सर्व जीवों के रक्षपाल / रक्षक होकर जगत में प्रवर्तन करते हैं तथा नानाप्रकार के शील-संयमादि गुणों से सुशोभित हैं। नदी, पर्वत, गुफा, श्मशान, निर्जन और शुष्क वन में जाकर ध्यान करते हैं तथा मोक्ष की अभिलाषा रहती है, संसार के भयों से डरते हैं। एक मोक्षलक्ष्मी के ही लिए राज्यादि विभूति छोड़कर दीक्षा धारण करते हैं। इतना सब होते हुए भी कदापि मोक्ष नहीं पाते हैं। मोक्ष क्यों नहीं पाते हैं ? इनके सूक्ष्म केवलज्ञानगम्य ऐसे मिथ्यात्व का प्रबलपना पाया जाता है; इसलिए मोक्ष का पात्र नहीं, संसार का ही पात्र है तथा जिनके पास बहुत प्रकार के मिथ्यात्व का प्रबलपना पाया

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