________________ पंच परमेष्ठी निजात्मा का ज्ञान ही कर्म नष्ट करने का उपाय कोऽहं कीदृग्गुण: क्वत्य: किं प्राप्यः किं निमित्तकः। इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् / / 78 / / मैं कौन हैं? मुझमें कौन-से गुण हैं ? मैं इस मनुष्यगति में किस गति से आया हूँ ? इस भव में मुझे क्या प्राप्त करना है ? मेरा साध्य क्या है ? जो मेरा साध्य मोक्षमार्ग है, उसके लिए निमित्त क्या हो सकते हैं ? इसप्रकार के विचार प्रतिदिन न हों तो बुद्धि अयोग्य विषयों में प्रवृत्त होती है। आत्मस्वरूप का यथार्थ चिन्तन न हो तो बुद्धि कमार्ग में प्रवृत्त होती है अर्थात् सन्मार्ग/ मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होना हो तो आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ही एकमात्र अमोघ उपाय है / कुमार्ग अर्थात् मिथ्यामार्ग/संसारमार्ग/दुःखमार्ग का मूलकारण तो मिथ्यात्व है और मिथ्यात्व को अज्ञानी नानाप्रकार से सुरक्षित रखना चाहता है। कर्म बलवान है, यह मान्यता भी मिथ्यात्व ही है; क्योंकि यह विचार वस्तुस्वरूपसे विपरीत है। मिथ्यात्व का नाश करना, कर्म का नाश करना, मोक्षमार्ग प्राप्त करना, आत्मज्ञान प्राप्त करना अथवा सच्चा सुख प्राप्त करना - इन सबका अर्थ एक ही है। इनके लिए साधन भी एकमात्र आत्मचिन्तन/आत्मध्यान ही है। आत्मध्यान के लिए आत्मस्वरूप की ज्ञान चाहिए / ज्ञान के बिना ध्यान हो ही नहीं सकता। अत: यहाँ आचार्य श्री वादीभसिंह आत्मज्ञान करा रहे हैं - 1. मैं एक, अनादि-अनन्त, आनन्दकन्द, अनन्त गुणों का गोदाम, सिद्ध समान, अनन्त चतुष्टयस्वभावी, चैतन्यमय, परम स्वतन्त्र भगवत्स्वरूप आत्मा हूँ। वर्तमान मनुष्यपर्याय मात्र मैं नहीं हूँ। पर्याय तो नाशवान होती है; परन्तु मैं तो अविनाशी जीवतत्त्व हूँ। 2. मुझमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, श्रद्धा, चारित्र आदि अनन्त विशेष गुण हैं और अस्तित्व-वस्तुत्व आदि अनन्त सामान्य गुण हैं, जो सभी अविनश्वर हैं। ____3. वास्तव में देखा जाए तो मुझे मोक्ष ही प्राप्त करना है; किन्तु साक्षात मुक्ति की प्राप्ति इस पंचमकाल में शक्य नहीं है / अत: मोक्षमार्ग तो प्राप्त करना ही है। मोक्षमार्ग रत्नत्रयरूप है, उसमें सम्यग्दर्शन प्रधान है; अतएव आत्मानुभवस्वरूप सम्यग्दर्शन के लिए मुझे प्रयत्न करना है। 4. सम्यग्दर्शन के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु और तत्त्वनिर्णय ही प्रधान निमित्त है। इसप्रकार प्रतिदिन चिन्तन-मनन चलता रहे तो विपरीत मान्यता के लिए अवकाश ही नहीं रहता है, तब कर्म बलवान कैसे हो सकता है? क्षत्रचूड़ामणि : पहला लम्ब, श्लोक-७८, पृष्ठ 96-97, 18,