Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ पंच परमेष्ठी जाता है तो मोक्ष कैसे हो ? झूठे ही भ्रमबुद्धि से माने तो प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। दृष्टान्त है - जैसे अज्ञानी बालक मिट्टी का हाथी, घोड़ा, बैल आदि बनाता है, उसको सत्य मानकर बहुत प्रीति करता है तथा उस सामग्री को पाकर बहुत प्रसन्न होता है। पश्चात् उसको कोई फोड़े/तोड़े अथवा ले जाए तो बहुत दुःखी होता है; रोता है और छाती, माथा आदि कूटता है; उसको ऐसा ज्ञान नहीं है कि ये सब झूठे कल्पित हैं। वैसे ही अज्ञानी मोही-पुरुष बालक के समान कुदेवादिक को तारणतरण मानकर उनकी सेवा (उपासना) करता है। उसे ऐसा ज्ञान नहीं है कि ये स्वयं तरने में असमर्थ हैं तो मुझे कैसे तारेंगे? दूसरा दृष्टान्त कहते हैं - किसी पुरुष ने काँच का टुकड़ा पाया तथा उसमें चिन्तामणि रत्न की बुद्धि की । यह जाना कि यह चिन्तामणि रत्न है, अत: मुझे यह बहुत सुख देनेवाला होगा, यह मुझे मनवांछित फल देगा - इसप्रकार भ्रमबुद्धि से काँच के टुकड़े को पाकर ही प्रसन्न हआ तो क्या वह चिन्तामणि रत्न हो गया? और क्या उससे मनवांछित फल की सिद्धि होगी ? कदापि नहीं होगी। काम पड़ने पर उसकी आराधना करे तथा उसको बाजार में बेचे तो दो कौड़ी की प्राप्ति होगी। इसीप्रकार कुदेवादि को अच्छा जानकर अनेक जीव सेवा करते हैं; किन्तु उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता और पूरी तरह परलोक में नरकादि दुःख ही सहन करना पड़ते हैं। इसलिए कुदेवादि का सेवन तो दूर ही रहो; किन्तु उनके स्थान पर/समीप रहना भी उचित नहीं है। जिसप्रकार सादि क्रूर जीवों का संसर्ग उचित नहीं, उसीप्रकार कुदेवादि का संसर्ग उचित नहीं । सर्पादि और कुदेवादि में इतना विशेष है कि सर्पादि के सेवन से तो एकबार ही प्राणों का नाश होता है और कुदेवादि के सेवन से पर्याय-पर्याय में अनन्तबार प्राणों का नाश होता है साधु का स्वरूप तथा नानाप्रकार के नरक-निगोद के दुःख को सहते हैं; इसलिए सर्पादि का सेवन श्रेष्ठ है, किन्तु कुदेवादि का सेवन श्रेष्ठ नहीं है। - इसप्रकार कुदेवादि का सेवन अनिष्ट जानना । इसलिए जो विचक्षण पुरुष अपना हित चाहते हैं, वे शीघ्र ही कुदेवादि का सेवन छोड़ें। देखो, संसार में तो यह जीव ऐसा सयाना चतुर है और ऐसी बुद्धि लगाता है कि दमड़ी की हाँडी खरीदे तो उसे भी तीन टकोरे देकर, फूटी-साबुत देखकर खरीदता है तथा धर्म उत्कृष्ट वस्तु है, जिसके सेवन करने से अनन्त संसार के दुःख से छूटता है, उसे अंगीकार करने में अंशमात्र भी परीक्षा नहीं करता। ___ लोक में तो भेड़ की चाल जैसा प्रवाह है। जैसे अन्य लोग पूजा करें तथा सेवन करें, वैसे ही यह भी पूजा तथा सेवन करता है। यह भेड़ की चाल कैसी है ? भेड़ को ऐसा विचार नहीं है कि आगे खाई है या कुआ है, सिंह है या व्याघ्र है - इसप्रकार बिना विचार के एक भेड़ के पीछे सारी भेड़ें चली जाती हैं। आगे की भेड़ खाई में गिर जाए तो पीछे की सभी भेड़ें भी खाई में गिर जाती हैं अथवा अगली भेड़ सिंह या व्याघ्रादि के स्थान में जाकर फँस जाए तो पिछली भेड़ें भी जाकर फँस जाती हैं। ___ उसीप्रकार यह संसारी जीव है, जो बड़ों पूर्वजों के कुल में खोटा/ मिथ्या मार्ग चला आया हो तो यह भी खोटे मार्ग में चलती है अथवा अच्छा मार्गचला आ सच्चे गुरु का स्वरूप ऐसा विचार नहीं है कि अच्छा मार्ग कसायावर खोटामागकसाधिकृत। ऐसा ज्ञान हो तो खोटे मार्ग को छीपलिधोगिभवाऽस्तारको गुरुः ॥३०॥ जीइसयिरपरकमहरखतकी जीकाकामा जिल्लाम-ज्ञापपविष दोस्ते इसी कोजिमर्स यूजत्तिाहिऔरउसीको सैखम करता है संखो ज्ञानी है, बोहराजीव की मिजस्वेभीबहै; इसलिए धर्मकीपरीक्षा करके ग्रहण करमा ४६, - इसप्रकार साधु का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ।

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