Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 29
________________ पंच परमेष्ठी किये गये अपराध की निन्दा करता हुआ, हाथ जोड़कर, खड़ा होकर निम्नप्रकार वचन कहता है - "हे प्रभु ! हे दया सागर ! मेरे ऊपर क्षमा करो, क्षमा करो! हाय, अब मैं क्या करूँ ? मेरे इस पाप की निवृत्ति कैसे हो ? मेरा कौन-सा पाप कर्म उदय में आया, जो मुझे यह खोटी बुद्धि उत्पन्न हुई। बिना अपराध किये मुनिराज पर उपसर्ग किया, जिनके चरणों की सेवा इन्द्रादिक को भी दुर्लभ है।" "मैं रंक और ये परम उपकारी एवं त्रैलोक्य में पूज्य ! मैंने क्या जानकर इन पर उपसर्ग किया? हाय ! हाय ! अब मेरा क्या होगा ? मैं किस गति में जाऊँगा?" इसप्रकार वह पुरुष बहुत विलाप करता हुआ और हाथ मलता हुआ मुनिराज के चरणों में बारम्बार नमस्कार करता है। जैसे कोई पुरुष समुद्र में डूबते समय, जहाज का अवलम्बन लेता है; वैसे ही मैं गुरु के चरणों का अवलम्बन लेता हूँ। यह निश्चय जानता हूँ कि अब मुझे इन्हीं के चरणों की शरण है, अन्य शरण नहीं । यदि मैं इनके चरणों की सेवा करूँ तो ही मैं इस गाली देना और उपसर्ग के अपराध से बच सकता हूँ; अन्य कोई उपाय नहीं है। मेरे दु:ख मिटाने में ये ही समर्थ हैं। पश्चात् इस पुरुष की धर्म-बुद्धि को देखकर श्रीगुरु फिर बोले - "हे वत्स! तुम डरो मत, तुम्हारा संसार निकट आया है ! इसलिए अब तुम धर्मामृत रसायन का पान करो और जन्म-जरा-मरण के दुःखों का नाश करो।" - मुनिराज ऐसे अमृतमयी वचनों से उस पुरुष का पोषण करते हैं, जैसे ग्रीष्म ऋतु में मुरझाई वनस्पति का मेघ पोषण करते हैं। ___महन्त पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि अवगुण ऊपर गुण ही करें। दुर्जन पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि गुण ऊपर भी अवगुण ही करें। ऐसे गुरु तारने में समर्थ क्यों नहीं हों ? होते ही होते हैं। साधु का स्वरूप अब ये शुद्धोपयोगी वीतरागी संसार-भोग-साम्रगी से उदासीन, शरीर से निस्पृह शुद्धोपयोग की स्थिरता के लिए शरीर को आहार किस भाँति देते हैं, उसका वर्णन करते हैं। मुनिराज के आहार लेने के पाँच प्रयोजन - प्रथम प्रयोजन गोचरी - जैसे गाय को कोई रंक अथवा राजा घास आदि डाले, तो गाय को तो चरने का ही प्रयोजन है, किसी पुरुष से प्रयोजन नहीं है; वैसे ही मुनि को कोई रंक या राजा आदि पड़गाह कर आहार दे, तो उन्हें तो आहार लेने का ही प्रयोजन है, रंक अथवा राजा से प्रयोजन नहीं है। ___ दूसरा प्रयोजन भ्रामरी - जैसे भौंरा उड़ता हुआ फूल की वासगन्ध लेता है, फूल का विराधक नहीं है; वैसे ही मुनिराज गृहस्थ के घर आहार लेते हैं; परन्तु गृहस्थ को लेश मात्र खेद उत्पन्न नहीं होता है। तीसरा प्रयोजन दाह शमन - जैसे आग लगी हो तो उसे जिस तिस प्रकार बुझा देना चाहते हैं; उसीप्रकार मुनि को उदराग्निरूपी अग्नि है, उसको जैसा-तैसा शुद्ध आहार मिले, उसे बुझाते हैं, अच्छे-बुरे स्वाद का प्रयोजन नहीं है। चौथा प्रयोजन अक्षमृक्षण - जिसप्रकार गाड़ी ओंगन बिना नहीं चलती, उसीप्रकार मुनिराज यह जानते हैं कि यह शरीर बिना आहार दिये नहीं चलता, शिथिल होता है। मुझे तो इसके सहारे संयम आदि गुण एकत्र कर मोक्ष पहुँचना है। __पाँचवाँ प्रयोजन गर्तपूरण - जिसप्रकार किसी पुरुष का खाईखात आदि का गड्ढा खाली हो गया हो, तो वह पुरुष पत्थर, मिट्टी, ईंटों को जोड़कर पूर देना चाहता है; उसीप्रकार मुनिराज का निहार आदि से उदररूपी गड्ढा खाली हो जाता है तो उसे जिस-तिस शुद्ध आहार से भरते हैं। - इसप्रकार पाँचप्रकार का अभिप्राय जानकर वीतरागी मुनिराज

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