Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ ४६ पंच परमेष्ठी यदि शास्त्राभ्यास करते-करते परिणाम स्थिर होने लग जाएँ तो शास्त्राभ्यास को छोड़कर ध्यान में लग जाते हैं। अत: शास्त्राभ्यास से ध्यान का फल बहुत है; इसलिए हलका कार्य छोड़कर ऊँचे कार्य में लगना उचित ही है। ध्यान में उपयोग की स्थिरता अल्पकाल रहती है और शास्त्राभ्यास में उपयोग की स्थिरता बहुतकाल रहती है; इसलिए मुनि महाराज ध्यान धारण करते हैं, शास्त्र वाँचते हैं और उपदेश भी देते हैं। आप स्वयं गुरु से पढ़ते हैं, औरों को पढ़ाते हैं और चर्चा भी करते हैं। मूलग्रन्थों के अनुसार अपूर्व ग्रन्थों को जोड़ते हैं। ___ मुनिराज का आहार-विहार - मुनिराज नगर से नगरान्तर, देश से देशान्तर विहार करते हैं। भोजन के लिए नगरादि में जाते हैं। वहाँ पड़गाहे जाने पर ऊँचे क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण कुल में नवधा-भक्तिसहित छियालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर खड़े-खड़े, दिन में एक बार करपात्र में आहार लेते हैं - इत्यादि शुभकार्यों में प्रवर्तन करते हैं। ___ मुनिराज उत्सर्गमार्ग को छोड़कर परिणामों की निर्मलता के अर्थ अपवादमार्ग का आदर करते हैं और अपवादमार्ग छोड़कर उत्सर्गमार्ग का आदर करते हैं। उत्सर्गमार्ग तो कठिन है और अपवादमार्ग सुगम है। मुनिराज के ऐसा हठ नहीं है कि मुझे कठिन ही आचरण आचरना है या सुगम ही आचरण आचरना है। मुनिराज के तो परिणामों की तौल है, बाह्य-क्रिया का प्रयोजन नहीं है। जिस प्रवृत्ति से परिणामों की विशुद्धता में वृद्धि हो और ज्ञान का क्षयोपशम बढ़े, वही आचरण आचरते हैं। ज्ञान-वैराग्य आत्मा का निज लक्षण है, उसे ही वे चाहते हैं। मुनिराज की ध्यानावस्था और राजादि द्वारा उनकी वन्दना - अब मुनिराज कहाँ, किसप्रकार ध्यान में स्थित रहते हैं, कैसे विहार साधु का स्वरूप करते हैं और कैसे राजादिक आकर वन्दना करते हैं; वही कहते हैं। मुनिराज तो वन में, श्मशान में, पर्वत की गुफा में, पर्वत के शिखर पर एवं शिला पर ध्यान धरते हैं। नगरादि से राजा, विद्याधर और देव वन्दन करने आते हैं। वे मुनिराज की ध्यानावस्था देखकर दूर से ही नमस्कार कर वहीं खड़े रहते हैं। किसी पुरुष को यह अभिलाषा होती है कि कब मुनिराज का ध्यान खुले, कब मैं उनके निकट जाकर प्रश्न करूँ तथा गुरु का उपेदश सुनकर प्रश्न का उत्तर जानूँ, अतीत-अनागत की पर्याय को जानूँ - इत्यादि अनेकप्रकार के स्वरूप को गुरु के मुख से जानना चाहते हैं। कितने ही पुरुष खड़े-खड़े विचार करते हैं और कितने ही पुरुष नमस्कार कर उठ जाते हैं। कितने ही ऐसा विचारते हैं कि मैं मुनिराज का उपदेश सुने बिना घर जाकर क्या करूँगा? ____ मैं तो मुनिराज के उपदेश सुने बिना अतृप्त हूँ, मुझे नानाप्रकार के सन्देह हैं और नानाप्रकार के प्रश्न हैं। उनका निवारण दयालु गुरु बिना और कौन करेगा? इसलिए हे भाई ! मैं तो जबतक मुनिराज का ध्यान खुले, तबतक खड़ा ही रहूँगा। ___ ये मुनिराज परम दयालु हैं; किन्तु अपना हित छोड़कर हमको उपदेश कैसे दें ? इसलिए मुनिराज को अपने आगमन की जानकारी मत दो। अपने आगमन से कदाचित वे ध्यान से चलित हों तो हमें अपराध/दोष लगेगा, इसलिए चुपचाप ही रहो। कुछ लोग परस्पर ऐसा कहते हैं - "देखो भाई ! मुनिराज की कैसी दशा है? काष्ठ, पाषाण की मूर्तिवत् अचल है। नासाग्र दृष्टि धारण की है। संसार से अत्यन्त उदासीन हैं। अपने स्वरूप में अत्यन्त लीन हैं। जहाँ आत्मिकसुख के लिए राजलक्ष्मी को तुच्छ जीर्ण तृण की भाँति छोड़ा है तो इनके आगे अपनी क्या गिनती है ?"

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