Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ पंच परमेष्ठी ४८ कोई कहता है - "अरे भाई ! अपनी गिनती नहीं यह बात तो सत्य; परन्तु ये मुनिराज परम दयालु हैं, महा-उपकारी हैं, तारण तरण समर्थ हैं; इसलिए ध्यान खुलने पर तो हमारा भी कार्य सिद्ध करेंगे।" कोई कहता है - "देखो भाई ! मुनिराज की कान्ति, मुनिराज का अतिशय और मुनिराज का साहस। मुनिराज ने कान्ति से दशों दिशाओं में उद्योत किया है। उनके अतिशय के प्रभाव से मार्ग के सिंह, हाथी, व्याघ्र, रीछ, चीता, मृग इत्यादि जानवर वैरभाव छोड़कर, मुनिराज को नमस्कार कर निकट बैठ जाते हैं।" " मुनिराज का साहस ऐसा है कि इतने क्रूर जानवरों की निकटता के भय से रहित / उनका भय छोड़कर निर्भय होकर इस उद्यान में विराजते हैं और ध्यान से क्षणमात्र भी चलायमान नहीं होते हैं। क्रूर पशुओं को पूरी तरह मोह लिया है। यह बात न्याययुक्त ही है कि जैसा निमित्त मिलता है, वैसा ही कार्य बनता है; अतः मुनिराज की शान्तमुद्रा देखकर क्रूर जानवर भी शान्ति को प्राप्त होते हैं।" कोई कहता है - "अरे भाई ! इन मुनिराज का साहस अद्भुत है, कौन जाने, ( न मालूम ) ध्यान खुले या न भी खुले; इसलिए यहीं से नमस्कार कर घर चलें; फिर आएँगे।" तब उससे कोई कहता है- “अरे भाई! अभी क्यों उतावले होते हो ? श्रीगुरु की अमृतरूप वाणी का पान किये बिना ही घर में जाने से क्या सिद्धि है ? तुमको घर जाना अच्छा लगता है, मुझे तो नहीं लगता। मुझे तो मुनिराज का दर्शन सबसे प्रिय लगता है। मुनिराज ध्यान अब खुलेगा, बहुत देर हो गई; इसलिए किसीप्रकार का विकल्प मत करो। " कोई कहता है - "अरे भाई ! तुमने यह ठीक ही कहा, इसको साधु का स्वरूप ४९ अत्यन्त अनुराग है; यह श्रावक धन्य है ।" इसप्रकार परस्पर वार्तालाप और मन में विचार कर रहे थे, तभी मुनिराज का ध्यान खुला । बाह्य उपयोग होने से वे शिष्यजन आदि को देखने लगे, तब शिष्यजन कहने लगे “अरे भाई ! मुनिराज परम दयालु अपने ऊपर दया कर सन्मुख अवलोकन कर रहे हैं, मानो अपने को बुलाते ही हैं; इसलिए अब सावधान हो जाओ और शीघ्र ही चलो, चलकर अपना कार्य सिद्ध करो। " तब वे शिष्य मुनिराज के निकट गए और श्रीगुरु की तीन प्रदक्षिणा दीं, युगल-हस्त मस्तक को लगाकर नमस्कार किया और मुनिराज के चरणकमल में मस्तक रख दिया। चरण की रज मस्तक पर लगाई और स्वयं को धन्य मानते हुए, न अधिक दूर और न अधिक निकट ऐसे विनयसंयुक्त खड़े रहकर, हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे । कोई स्तुति करता है - “हे प्रभु! हे दयालु ! हे करुणानिधि ! हे परम उपकारी ! संसार-समुद्र तारक, भोगों से परान्मुख, संसार से उदासीन, शरीर से निस्पृह और स्व- पर कार्य में लीन - ऐसे ज्ञानामृत में मग्न आप जयवन्त वर्तो, मेरे ऊपर प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ ! " "हे भगवन् ! आपके बिना मेरा कोई रक्षक नहीं, अतः आप ही अब मुझे संसार से पार करो। संसार में पड़े हुए जीवों के आप ही आधार हो और आप ही शरण हो, इसलिए जिस बात में मेरा कल्याण हो; आप वही कहो, मुझे आपकी आज्ञा प्रमाण है।” “मैं बुद्धिहीन और विवेकरहित हूँ, इसलिए विनय-अविनय नहीं समझता हूँ, मैं तो एक अपना हित चाहता हूँ।" जैसे बालक माता को लाड़कर चाहे जैसा बोलता है और लड्डू आदि

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