Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ पंच परमेष्ठी રૂ૮ कर्ममल को धो दिया है। जैसे सोलहवान का शुद्ध कंचन (स्वर्ण) अन्तिम बार की आँच पर पकाया हुआ निष्पन्न होता है, वैसी ही अपनी स्वच्छ शक्ति से जिनका स्वरूप दैदीप्यमान प्रकट हुआ है; इसलिए मानो प्रकट होते ही समस्त ज्ञेयों को निगल लिया है! सिद्ध भगवान कैसे हैं ? एक-एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्तअनन्त सिद्ध अलग-अलग अपनी सत्ता सहित स्थित हैं, कोई सिद्ध भगवान किसी अन्य सिद्ध भगवान से नहीं मिलते । वे परम पवित्र हैं, स्वयं शुद्ध हैं एवं आत्मिक स्वभाव में लीन हैं तथा परम अतीन्द्रिय अनुपम, बाधा रहित निराकुलित स्वरस को निरन्तर पीते हैं; उसमें अन्तर नहीं पड़ता है। अपने ज्ञायक स्वभाव को जिन्होंने प्रकट किया है तथा जो समयसमय षट् प्रकार की हानि-वृद्धिरूप से अनन्त अगुरुलघु गुणरूप परिणमते हैं। अनन्तानन्त आत्मिक सुख को आचरते हैं एवं आस्वादन करते हुए अघाते नहीं हैं अर्थात् अत्यन्त तृप्त होते हैं। जिन्हें अब कुछ भी इच्छा नहीं रही, कृतकृत्य हुए अर्थात् जो कार्य करना था वह कर चुके हैं। कैसे हैं परमात्मा देव? ज्ञानामृत से जिनका स्वभाव झरता/द्रवित होता है और स्वसंवेदन से जिसमें आनन्दरस की धारा उछलती है, उछल कर अपने ही स्वभाव में लीन होती है। जैसे शक्कर की डली जल में गल जाती है, वैसे ही स्वभाव में उपयोग गल गया है; पुन: बाहर निकलने में असमर्थ है। जिनकी निज परिणति स्वभाव में रमण करती है, एक समय के लिए उपजती एवं विनशती है तथा ध्रुव रहती है। पर परिणति से भिन्न अपने ज्ञान-स्वभाव में प्रवेश किया है तथा ज्ञान परिणति में प्रवेश किया है। इसप्रकार एकमेक होकर अभिन्न परिणमन होता है। ज्ञान और परिणति में दो को स्थान नहीं रहता - ऐसा अद्भुत कौतुहल सिद्ध होता है। सिद्ध का स्वरूप वे सिद्ध भगवान अत्यन्त गम्भीर, उदार एवं उत्कृष्ट हैं। निराकुलित, अनुपम, बाधा रहित स्वरूप से पूर्ण भरे हैं। ज्ञानानन्द द्वारा आह्लादित हैं तथा सुख स्वभाव में मग्न हैं। अखण्ड, अचल, अविनाशी, निर्मल तथा चेतनास्वरूप शुद्ध ज्ञान की मूर्ति हैं। ज्ञायक हैं, वीतराग हैं तथा सर्वज्ञ हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय संयुक्त त्रिकाल सम्बन्धी सर्व चराचर पदार्थों को एक समय में युगपत जानते हैं । सहजानन्द हैं, सर्व कल्याण के पुंज हैं एवं त्रैलोक्य में पूज्य हैं। जिनके सेवन से सर्व विघ्न विलीन हो जाते हैं। श्री तीर्थंकरदेव भी (तपकल्याणक के समय) जिनको नमस्कार करते हैं - ऐसे सिद्ध भगवान को मैं भी बारम्बार हस्त युगल मस्तक को लगाकर नमस्कार करता हूँ। नमस्कार का प्रयोजन - मैं उन्हें उन्हीं के गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ। वे देवाधिदेव हैं। यह देव संज्ञा सिद्ध भगवान में ही शोभायमान होती है तथा चार परमेष्ठियों की तो गुरु संज्ञा है। सिद्ध भगवान सर्वतत्त्व को प्रकाशित करते हुए भी ज्ञेयरूप नहीं परिणमते हैं, अपने स्वभावरूप ही रहते हैं। वे ज्ञेयों को इसप्रकार जानते हैं, मानो ये समस्त ज्ञेय पदार्थ शुद्ध ज्ञान में डूब गए हैं या मानो प्रतिबिम्बित हुए हैं अथवा मानो ज्ञान में उत्कीर्ण कर दिए हैं। उनके असंख्यात प्रदेश शान्तरस से भरे हैं तथा ज्ञानरस से आह्लादित हैं। शुद्धामृत वही हुआ परमरस, उसे ज्ञानांजलि से पीते हैं। जैसे चन्द्रमा के विमान से अमृत झरता है, वह दूसरों को आह्लाद/आनन्द उपजाता है और आतप को दूर करता है; वैसे ही सिद्ध भगवान आप स्वयं तो ज्ञानामृत पीते हैं, आचरते हैं तथा दूसरों को आह्लाद/आनन्द उपजाते हैं। उनका नाम, स्तुति एवं ध्यान करने से भव्यजीवों का आतप विलीन हो जाता है, परिणाम शान्त होते हैं तथा आपा-पर की शुद्धता होती है। जो ज्ञानामृत को पीते हैं, उन्हें निज स्वरूप की प्रतीति आती है।

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