Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ अरहन्त का स्वरूप ' इष्ट देव तीन प्रकार के हैं - देव, गुरु और धर्म । इनमें देव दो प्रकार के हैं - अरहन्त और सिद्ध; गुरु तीन प्रकार के हैं - आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा धर्म एक प्रकार का ही है। ____ अरहन्तदेव का स्वरूप - अरहन्तदेव परम-औदारिक शरीर में पुरुषाकार आत्मद्रव्य है। जिन्होंने घातिया कर्ममल का घात किया है, जिन्होंने कर्ममल को धो दिया है, जिन्होंने अनन्त-चतुष्टय की प्राप्ति की है, जिनमें निराकुलित, अनुपम, बाधारहित ज्ञान का रस पूर्णरूप से भरा है तथा जो लोकालोक को प्रकाशित करते हुए भी ज्ञेयरूप परिणमित नहीं होते हैं। एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभाव को ही धारण करते हैं एवं शान्तरस से अत्यन्त तृप्त हैं। जो क्षुधा आदि अठारह दोषों से रहित हैं, जो निर्मल (स्वच्छ) ज्ञान के पिण्ड हैं। जिनके निर्मल ज्ञानस्वभाव में लोकालोक के चराचर पदार्थ स्वयमेव आकर प्रतिबिम्बित होते हैं; मानो भगवान के ज्ञानस्वभाव में ये पदार्थ पूर्व से ही स्थित थे, उनके निर्मल ज्ञानस्वभाव की महिमा वचन-अगोचर है। ___अरहन्तदेव कैसे हैं ? जैसे चाँदी नामक धातु के पिण्ड को साँचे में रखते हैं, वैसे ही अरहन्तदेव चैतन्यधातु के पिण्ड, परम-औदारिक शरीर में स्थित रहते हैं। अरहन्त का आत्मद्रव्य भिन्न है एवं उनका शरीर भिन्न है। मैं उनको हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ। परम वीतराग अरहन्तदेव कैसे हैं ? वे अतीन्द्रिय आनन्द के रस का पान करते हैं - आस्वादन करते हैं। जिनके सुख की महिमा का वर्णन करने में हम समर्थ नहीं हैं; परन्तु छद्मस्थों को जानने में आए अरहन्त का स्वरूप उसके लिए निम्नप्रकार की उपमा सम्भव है - तीनों काल सम्बन्धी बारहवें गुणस्थान के धारक शुद्धोपयोगी महामुनियों के आत्मिकसुख से अनन्तगुना सुख केवली भगवान के एक समय में उत्पन्न होता है। केवली भगवान के सुख की जाति ही भिन्न है; क्योंकि वह तो अतीन्द्रिय, क्षायिक, सम्पूर्ण एवं स्वाधीन सुख है और छद्यस्थ का सुख इन्द्रिय-जनित, अपूर्ण तथा पराधीन है, इसमें सन्देह नहीं। __ वे केवलज्ञानी कैसे हैं ? केवल एक निज स्वच्छ ज्ञान के पुञ्ज हैं, जिनमें और भी अनन्त गुण भरे हैं। तीर्थंकर अरहन्तदेव कैसे हैं ? अपने उपयोग को अपने स्वभाव में लीन किया है। जिसप्रकार नमक की डली पानी में गल जाती है, उसीप्रकार केवली भगवान का उपयोगस्वभाव में गल गया है, अत: वे नियम से बाहर निकलने में असमर्थ हैं। वे आत्मिक-सुख में अत्यन्त रत/लीन हुए हैं, जिसका रस पीते हुए तृप्त नहीं होते हैं अर्थात् अत्यन्त तृप्त हैं। हे भगवन् ! आपकी महिमा अथाह है, आपके गुणों की महिमा देख-देखकर आश्चर्य उत्पन्न होता है, आनन्द के समूह उत्पन्न होते हैं; उससे हम अत्यन्त तृप्त हैं। हे भगवन ! दया-अमृत से भव्यजीवों का आप ही पोषण करते हो, आप ही उन्हें तृप्त करते हो। आपके उपदेश बिना सर्व लोकालोक शून्य हो गया। उसमें ये समस्त जीव शून्य हो गए हैं। अब आपके वचनरूपी किरणों से मेरा अनादिकाल का मोह-तिमिर समाप्त हो गया है। अब मुझे आपके प्रसाद से तत्त्व-अतत्त्व का स्वरूप प्रतिभासित हुआ है। आपके उपदेश से मेरे ज्ञान-लोचन खुल गए हैं, उसके सुख की महिमा हमसे नहीं कही जा सकती। हे भगवन् ! संसार संकट को काटने के लिए आप ही अकारण,

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