Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ पंच परमेष्ठी अद्वितीय, परम वैद्य दिखते हो; इसलिए आपके चरणारविन्द में बहुत अनुराग वर्तता है। हे भगवन् ! भव-भव/पर्याय-पर्याय में प्रत्येक में एक आपके चरणों की सेवा ही मैं प्राप्त करूँ - यह भावना है। वे पुरुष धन्य हैं जो आपके चरणों की सेवा करते हैं, आपके गुणों की अनुमोदना करते हैं तथा आपके रूप को देखते हैं, आपका गुणानुवाद करते हैं, आपके वचनों को सुनते हैं, मन में निश्चय/निर्णय कर धारण करते हैं और आपकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं। आपके चरणों के बिना और किसी को नमन नहीं करते हैं। आपके ध्यान सिवाय अन्य का ध्यान नहीं करते हैं। आपके चरण पूजते हैं, आपके चरणों में अर्घ्य देते हैं, आपकी महिमा गाते हैं, आपके चरण तले की रज/धूल व गन्धोदक मस्तक एवं नाभि के ऊपर उत्तम अंगों में लगाते हैं। आपके सन्मुख खड़े होकर हस्त-अंजुली जोड़कर नमस्कार करते हैं, आपके ऊपर चँवर ढोरते हैं, क्षत्र चढ़ाते हैं; वे ही पुरुष धन्य हैं। आपके भक्तों की महिमा इन्द्रादिक देव गाते हैं। आपके भक्त कृतकृत्य हैं, वे ही पवित्र हैं, उन्हीं ने मनुष्य भव का लाभ लिया, जन्म सफल किया तथा भवसमुद्र को जलांजलि दी। हे जिनेन्द्र देव ! हे कल्याण पुञ्ज ! हे त्रिलोक तिलक ! अनन्त महिमा लायक, परम भट्टारक, केवलज्ञान-केवलदर्शनरूप युगल नेत्र के धारक, सर्वज्ञ वीतराग आप जयवन्त प्रवर्तो, आपकी महिमा जयवन्त प्रवर्ते, आपका राज्य-शासन जयवन्त प्रवर्ते । धन्य यह मेरी पर्याय, क्योंकि इस पर्याय में आपके समान अद्वितीय पदार्थ पाया। उसकी अद्भुत महिमा किससे कहें ? आप ही माता, आप ही पिता, आप ही बान्धव, आप ही मित्र, आप ही परम उपकारी हो; आप ही छह काय के जीवों की हिंसा के परिहारी, आप ही भव अरहन्त का स्वरूप समुद्र में पड़ते/गिरते हुए प्राणी के आधार हो । आप जैसा और कोई त्रिकाल में नहीं है। आप ही आवागमन से रहित करने में समर्थ हो, मोहरूपी पर्वत को फोड़ने में आप ही वज्रायुध हो। ___घातिया कर्मों को चूर करने में आप ही अनन्त बलशाली हो। हे भगवन् ! आपने दोनों हाथ लम्बे ही नहीं पसारे हैं, वरन् अन्य जीवों को संसारसमुद्र से निकालने के लिए हस्तावलम्बन दिया है। ___हे परमेश्वर ! हे परम ज्योति ! हे चिद्रूप मूर्ति ! आप आनन्दमय, अनन्त चतुष्टय से मण्डित, अनन्त गुणों से पूरित, वीतराग मूर्ति, आनन्द रस से आह्लादित, महामनोज्ञ, अद्वैत, अकृत्रिम, अनादि-निधन और त्रैलोक्य पूज्य हो। आप ऐसे अलौकिकरूप से शोभायमान होते हैं कि जिससे आपके अवलोकन से मन और नेत्र दोनों तृप्त नहीं हो पाते हैं। __उनके शरीर की सौम्यदृष्टि ध्यानमय, अकम्प, आत्मिकप्रभाव से ऐसी शोभायमान है, मानो भव्यजीवों को उपदेश ही दे रही हो ! ___ क्या उपदेश देती है ? "हे भव्यजीवो ! अपने स्वरूप में लगो, विलम्ब मत करो, शान्तरस का पान करो"- इस भाँति संकेत कर भव्यजीवों को अपने स्वरूप में लगाती है। इस निमित्त को पाकर अनेक जीव संसार-समुद्र से तिरते हैं, अनेक जीव आगे तिरेंगे तथा वर्तमान में तिरते देखे जाते हैं - ऐसे परम-औदारिक शरीर को भी हमारा नमस्कार हो। जिनेन्द्रदेव तो आत्मद्रव्य ही हैं; परन्तु आत्मद्रव्य के निमित्त से शरीर की भी स्तुति उचित है । भव्यजीवों को मुख्यरूप से शरीर का ही उपकार है। अत: शरीर की स्तुति एवं उसे नमस्कार करना भी उचित है। जैसे कुलाचलों के मध्य मेरु शोभायमान है, वैसे ही गणधरों एवं इन्द्रों के मध्य तीर्थंकर अरहन्त भगवान शोभायमान हैं - ऐसे श्री अरहन्त देवाधिदेव इस ग्रन्थ को पूर्ण करें।

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