________________
पंच परमेष्ठी
रुक जाता; इसलिए आत्मा प्रत्यक्ष अमूर्तिक है, इसमें सन्देह नहीं है।
यह आत्मा श्रोत्र-इन्द्रिय के द्वार से सात प्रकार के शब्दों की परीक्षा करता है, सुनता है, नेत्र-इन्द्रिय के द्वार से पाँच प्रकार के वर्ण को भलीभाँति देखता है, नासिका-इन्द्रिय के द्वार से दो प्रकार की सुगन्ध-दुर्गन्ध को जानता है, रसना-इन्द्रिय के द्वार से पाँच प्रकार के रस का आस्वादन करता है एवं स्पर्शन-इन्द्रिय के द्वारा आठ प्रकार के स्पर्श को जानता है, अनुभव करता है एवं निर्धार करता है।
ऐसा जाननपना ज्ञायकस्वभाव के बिना इन्द्रियों में तो नहीं है, इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। अनन्त पुद्गल के परमाणुओं के मिलने से इनका यह आकार बना है। अत: इन्हीं इन्द्रियों के द्वार से जो दर्शन-ज्ञान उपयोग में आता है, वह उपयोग ही मैं हूँ; अन्य नहीं, भ्रम से ही अन्य भासित होता है। ___ अब श्रीगुरु के प्रसाद से मेरा भ्रम विलीन हो गया है। मैं प्रत्यक्ष साक्षात् ज्ञाता-द्रष्टा, अमूर्तिक, सिद्धसमान स्वयं को देखता-जानता
और अनुभव करता हूँ। इस अनुभवन में कोई निराकुल, शान्तिप्रदायक, अमूर्तिक, आत्मिक, अनुपम रस उत्पन्न होता है और आनन्द झरता है।
इस आनन्द का प्रभाव मेरे असंख्यात आत्मिक-प्रदेशों में धाराप्रवाह -रूप से चलता है, प्रवाहित होता है। इसकी अद्भुत महिमा को मैं ही जानता हूँ अथवा सर्वज्ञदेव जानते हैं; यह वचन-अगोचर है। __ मैं कभी गहरे तलघर में बैठकर देखता और विचारता हूँ तो भी मुझे वज्रमयी दीवार फोड़कर भी घट-पटादि पदार्थ दिखाई देते हैं - ऐसे विचार आते हैं कि - देखो ! यह मेरा मकान मुझे प्रत्यक्ष इससमय दिखाई देता है, यह नगर मुझे प्रत्यक्ष दिखता है।
सिद्ध का स्वरूप ___ मुझे यह भरतक्षेत्र दिखता है। सात पृथ्वियों में रहते हुए नारकियों के जीव मुझे दिखते हैं। सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, सर्वार्थसिद्धि के देव, सिद्धक्षेत्र में स्थित अनन्तानन्त सिद्ध भगवान, समस्त त्रिलोक, इतने ही प्रमाणवाला अमूर्तिक धर्मद्रव्य, इतने ही प्रमाणवाला अमूर्तिक अधर्मद्रव्य एवं इतने ही प्रमाण में एक-एक प्रदेश में स्थित एक-एक अमूर्तिक कालाणुद्रव्य स्थित दिखते हैं।
त्रिलोक अनन्तानन्त निगोदिया जीवों से भरा है तथा और भी जाति के त्रस जीव त्रस नाड़ी में स्थित हैं। नरकों में नारकी जीव महादुःख पाते हैं । स्वर्गों में स्वर्गवासी देव क्रीड़ा करते हैं तथा इन्द्रियजनित सुख को भोगते हैं। एक समय में अनन्तानन्त जीव मरते और उत्पन्न होते दिखते हैं। ___ दो परमाणु के स्कन्ध से प्रारम्भ कर अनन्त परमाणु एवं त्रैलोक्य प्रमाण महास्कन्ध पर्यन्त नाना प्रकार के पुद्गलों की पर्यायें मुझे दिखती हैं। वे प्रतिसमय अनेक स्वभाव को लिए हुए परिणमती हुई दिखती हैं। दशों दिशाओं में अलोकाकाश सर्वव्यापी दिखता है।
तीन काल के समयों का प्रमाण दिखता है और सर्व पदार्थों की तीन कालसम्बन्धी पर्यायों का पलटना भी दिखाई देता है। केवलज्ञान का जानपना मुझे प्रत्यक्ष दिखता है।
इसप्रकार ज्ञान का धारक स्वामी कौन है ? ऐसा ज्ञान किसे हुआ? - ऐसा ज्ञायक पुरुष तो प्रत्यक्ष साक्षात् विद्यमान दिखता है। यहाँ भी जहाँ-तहाँ ज्ञान का प्रकाश ही मुझे दिखता है, शरीर को नहीं दिखता; ऐसे जानपने का स्वामी कोई और ही है अथवा मैं हूँ ? यदि और ही हो तो मुझे ऐसी खबर क्यों पड़ती है ? अन्य किसने देखा ? और कैसे जाना ? इसलिए यह जानपना मुझे ही उत्पन्न हुआ है अथवा जो जानपना है, वह ही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वह ही जानपना है; इसलिए जानपना और मुझमें द्वैत नहीं है।