Book Title: Panch Parmeshthi
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ अरहन्त का स्वरूप पंच परमेष्ठी ____१८ दर्शन करने से सफल हुआ। पूर्व में अनन्त पर्यायें आपके दर्शन बिना निष्फल गईं।" ___ “अहो भगवन् ! आपने पूर्व में तीन लोक की सम्पदा जीर्ण तृणवत् छोड़ी। संसार-देह-भोग से विरक्त होकर संसार को असार जान, मोक्ष को उपादेय जान स्वयं जिनेश्वरी दीक्षा धारण की। तत्काल ही मन:पर्यय ज्ञानसूर्य का उदय हुआ। इसके बाद शीघ्र ही निरावरण केवलज्ञान सूर्य का उदय हुआ, जिसमें लोकालोक के अनन्त पदार्थ संयुक्त, द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव को लिए, तीन काल के समस्त चराचर पदार्थ एक समय में आपके ज्ञानरूपी दर्पण में सहज स्वयमेव ही झलकते हैं। उसकी महिमा अपनी सहस्र जिह्वाओं से इन्द्र तथा वचन-ऋद्धि के धारी गणधरादि महायोगीश्वर भी नहीं कर सकते - इसप्रकार अरहन्त परमेष्ठी की महिमा का वर्णन कर स्तुति की।।" जिनवाणी का उद्गम - आगे सरस्वती अर्थात् जिनवाणी की महिमा एवं स्तुति करते हैं, इसलिए हे भव्य ! तुम सुनो - यह जिनवाणी जिनेन्द्रदेव के हृदयरूपी सरोवर में उत्पन्न हुई। वहाँ से आगे चलकर जिनेन्द्रदेव के मुखारविन्द से निकलकर गणधर देवों के कानों में जाकर पड़ी। वहाँ से आगे चलकर गणधर देवों के मुखारविन्द से निकली। आगे चलकर यह धारा श्रुतसागर में जाकर मिली है अर्थात् आगम कहलाई। भावार्थ - यह जिनवाणी गंगा नदी की उपमा धारण करती है। यह वाणी स्याद्वाद-लक्षण से अंकित है एवं दया-अमृत से भरी है तथा चन्द्रमा समान उज्ज्वल और निर्मल है। जिस भाँति चन्द्रमा की चाँदनी चन्द्रवंशी कमलों को प्रफुल्लित करती है तथा सभी जीवों के आताप को हरती है, उसी भाँति जिनवाणी, भव्यजीव रूपी कमलों को प्रफुल्लित करती है, आनन्द उत्पन्न करती है तथा भव-आताप को दूर करती है। जिनवाणी की महिमा - जिनवाणी जगत की माता है, सभी जीवों को हितकारी है, परम पवित्र है एवं कुवादीरूपी हाथी का विदारण और परिहार करने के लिए वादितऋद्धि के धारी महामुनिरूपी शार्दूल/ सिंह की माता है। __ जिनप्रणीत वाणी कैसी है ? अज्ञान-अन्धकार का विध्वंस करने के लिए जिनेन्द्रदेवरूपी सूर्य की किरण ही है अथवा ज्ञानामृत की धार बरसाने के लिए मेघमाला के समान है - इत्यादि अनेकप्रकार की महिमा को धारण करती है - ऐसी जिनवाणी को मेरा नमस्कार हो। यहाँ स्वरूपानु-भवन का बिर अरहंतों का स्वरूप शर्य की सिद्धि ही है। ! - इसप्रकार जितवाकीस्कर सतुतिश्विासहिस्सा हैका बाप किया। त्यागकर, मुनिधर्म अंगीकार करके, निजस्वभावसाधन द्वारा चार घातिकर्मों का क्षय करके - अनंतचतुष्टयरूप विराजमान हुए; वहाँ अनंतज्ञान द्वारा तो अपने अनंतगुण-पर्याय सहित समस्त जीवादि द्रव्यों । को युगपत् विशेषपने से प्रत्यक्ष जानते हैं, अनंतदर्शन द्वारा उनका । । सामान्य अवलोकन करते हैं, अनंतवीर्य द्वारा ऐसी सामर्थ्य को धारण । करते हैं, अनंतसुख द्वारा निराकुल परमानन्द का अनुभव करते हैं। पुनश्च, जो सर्वथा राग-द्वेषादि विकारभावों से रहित होकर शांतरसरूप परिणमित हुए हैं, तथा क्षुधा-तृषादि समस्त दोषों से मुक्त होकर । देवाधिदेवपने को प्राप्त हुए हैं तथा आयुध-अंबरादिक व अंगविकारादिक । जो काम-क्रोधादि निंद्यभावों के चिह्न उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है तथा जिनके वचनों से लोक में धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, | जिसके द्वारा जीवों का कल्याण होता है तथा जिनके लौकिक जीवों के प्रभुत्व मानने के कारणरूप अनेक अतिशय और नानाप्रकार के वैभव । का संयुक्तपना पाया जाता है तथा जिनका अपने हित के अर्थ गणधरइन्द्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं - ऐसे सर्वप्रकार से पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं, उन्हें हम्मरक्षामा प्रस्थाका पहला अधिकार, पृष्ठ - २,

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