Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 17
________________ यहां रहे, चाहे दोक्षा ले अथवा मेरी मां के पास रहे, वह स्वतंत्र है । पर मेरो माँ दीक्षा ले तो मुझे संतोष होगा। मेरी बहन चन्द्रप्रभाश्री जी को चतुर्मास के हेतु बीकानेर अवश्य बुलावें। दूसरे दिन जब मैं अस्पताल गया तो वह “खामेमि सव्वे जीवा" तथा "खामिय खमाविय व चौदह जीव निकाय" आदि गाथायें बोल रहा था। मुझे देखते ही कहा, "भाई जी मेरे लिए आपही गुरुदेव हैं । जिन्होने मुझे गुरुदेव का दर्शन करा दिया। आज मुझे रात में गुरुदेव के दर्शन हो गये। मैं धन्य हो गया । अब मुझे प्रत्यक्ष दर्शन कराइए ! मैंने कहा:- तुम्हारे ठीक होते ही तुम्हें गुरुदेव के दर्शन कराने के लिए क्षत्रियकुण्ड ले चलूगा । उसने कहा यह तो दुराशा मात्र है। क्योंकि डाक्टर लोग अंग्रेजी व बंगला में बातें करते हैं, वह अविदित नहीं है । मैंने कहा भाई यदि बच गये तो गुरुदेव के दर्शन अविलम्ब करोगे अन्यथा भवान्तर में अवश्य दर्शन होंगे। उसने बंगला में निश्चयपूर्वक कहा--"निश्चयई आमि क्षत्रियकुण्ड जाबो एवं गुरुदेवेर चरण सेवाय थाकबो । मैंने कहा भाई ! तुम इस प्रकार के उत्तम मन के परिणाम को रखते हो, अतः तुम धन्य हो । ज्ञान ध्यान की बातें बना लेना सहज है पर समय पड़ने पर असमाधि को त्याग कर आत्म-स्थिरता में, समभाव में स्थिर रहने में कोई विरला ही समर्थ हो सकता है । तुमने तो वही स्थिति प्राप्त की है जो अत्यन्त दुर्लभ है। "आज रात में तुम फिर एकाग्र ध्यान से गुरुदेव को स्मरण करना, तुम्हें गुरुदेव के प्रत्यक्ष दर्श नहोंगे और वाणी भो सुन पाओगे । उसने मेरी बात स्वीकार की आगे अपने को समभाव में लीन रखकर वेदना को सहन करने लगा। इस रोग के रोगी दौड़ना, भागना, दूसरों को काट खाना आदि पागलपन विशेष करने लग जाते हैं, पर मनोहर न अपना विवेक इतना जागृत रखा कि डाक्टरों ने जो उसके हाथ लग में बाँध रखे थे, खोल दिये। नर्स जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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