Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 31
________________ २२ पंच भावना सज्माय भावार्थ धन्य है उन मुनियों को, जिन्होंने धन-संपत्ति-और घर छोड़कर साधु जीवन स्वीकारा है । उनमें भी तपस्वी मुनियों की तो और भी विषेशता है किउनने तो शरीर के स्नेह का भी अंत कर डाला है। उन तपस्वियों में भी विशेष प्रकार के अभिग्रह (त्याग ) धारी मुनि तो नि संग ( राग रहित ) बनकर वनवासी ही हो गये हैं । अतः वे विशेष-विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। अर्थात् एक-एक से बढकर सराहनयी हैं ।१०। धन्य ! तेह गच्छ-गुफा तजी, जिनकल्प भाव अफंद । परिहार विशुद्धि तप तपे, ते वंदे हो 'देवचन्द्र' मुनीन्द ।१शभ० ___ भावार्थ इस दूसरी ढाल के अंतिम पद्य में जो धन्यवाद दिया है, उसके अधिकारी बहुत कम हुआ करते हैं। इस युग में तो ऐसे मुनियों की नास्ति सी है । जिन्होंने गच्छरूपी गुफा को छोड़कर जिनकल्प१ को अपनाया है तथा निश्छल भाव से परिहारविशद्धि नामकर तपस्या करते हैं, उन्हें धन्यवाद के साथ श्री देवचन्द्रजी वंदना करते हैं ।-११ १ वज ऋषम नाराच संहनन वाला, नववे पूर्व की आचार नामक तीसरी वस्तु का जानकार, अभिग्नह सहित तीसरे प्रहर में अलेप आहार और विहार वाला, मुनि जिनकल्पी होता हैं। विशेष विवरण के लिए व्यवहारसूत्र के भाष्य की गाथा १३७६ से १४१७ तक पढिये...। २ नव साधुओं का समूह मिलकर परिहारविशुद्धि तप करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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