Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 42
________________ एकत्व भावना आन्यो पण तू एकलो रे, जाइश पण तू एक ॥ तो ए सर्व कुटुम्ब धीरे, प्रीत किसी अविवेक रे प्रा०||७| भावार्थ - तू अकेला ही आया और अकेला ही जायेगा अरे अविवेकी ! फिर तुझे सारे कुटुंब से प्रीत कैसे हो रही है ? अर्थात यह अविवेक छोड ॥ ७ ॥ वन मांहे गज सिंहादि थीरे, विहरतां न टले जेह | जिण आसन रवि आथमेरे, तिण आसन निशि छेह रेप्रा० ||८|| भावार्थ- जगल में विहार करते समय यदि दुष्ट हाथी, सिंह वगेरे हिंसक जानवर सामने आजाये तो भी जिनकल्पी मुनि अपना मार्ग बदलते नहीं, अपितु निर्भय होकर उनके सम्मुख जाते हैं ओर जिस स्थान पर, जिस आसन से खड़े या बैठे सूर्यास्त हो गया, तो उसी आसन से सारी रात बिता देते हैं। इधर उधर हिलने डोलने तक का काम नहीं । एकत्व भावना वाले मुनि ऐसे ध्यान मग्न होते है कि रात भर एक ही आसन से ध्यान करते रहते हैं । आहार ग्रहे तप पारणे रे, करमां लेप विहीन । एक बार पाणी पीवतां रे, वनचारी चित्त अदीन रे प्रा० ॥६॥ वह पात्र भावार्थ - जनकल्पी मुनि तपस्या के पारणे में ही आहार ग्रहण करते हैं । अर्थात् प्रतिदिन कोई न कोई तप चालू रहता ही हैं । आहार भी लेप न लगे वैसा, अर्थात रूखा सूखा लेंगे वह भी कर में । वे आहार के समय ही पानी भी एक ही वार पीते हैं । वे वनचारी अर्थात सदा वन में विचरते हुए भी चितमें नहीं लाते कि मेरा क्या होगा ॥ ६ ॥ एह दोष पर ग्रहण थी रे, पर-संगे गुण हाण । पर-धन-ग्राही चोर ते रे, एकपणो सुख ठाण रे प्रा० ॥ १० ॥ wxternali Jain Educationa International ... For Personal and Private Use Only २३ www.jainelibrary.org

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