Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ २२ पंच भावना सज्झाय वन-मृगनी परे तेहथी रे, छांड़ि सकल प्रतिबंध | तू एकाकी अनादि नोरे, किण थी तुज प्रतिबंध रेप्रा० ||३|| भावार्थ-सारे प्रतिबंधों को छोड़कर वन-मृग की तरह विचर । जब कि तू अनादिकाल से अकेला है, तब तेरे पर प्रतिबंध लगाने वाला कौन है । अर्थात ये प्रतिबंध अज्ञान एवं कल्पना के कारण ही है, इनसे ऊपर उठ । ३... शत्रु मित्रता सर्व थी रे, पामी बार अनन्त । कोण सयण दुश्मन किश्यो रे, काले सहु नो अंतरे प्रा० || ४ || भावार्थ- तू सभी जीवों के साथ एकवार नहीं, किंतु अनंतवार शत्रुता और मित्रता का सम्बंध बांध चुका है । तब कौन मित्र है और कौन तेरा शत्रु ! आखिर समय आने से शत्रु और मित्र सभी का अंत हो जाता है । अत: शत्रु या मित्र किसीका भी सम्बन्ध व प्रतिबध न रख ॥ ४ ॥ बांधे करम जीव एकलो रे, भोगवे पण ते एक । किण ऊपर किण वातनी रे, राग द्वेष नी टेक रोप्रा० ॥५॥ 'भावार्थ - यह जीव कर्मबंध भी अकेला करता है और भोगता भी अकेला ही है । फिर किसी पर राग और द्व ेष की टेक किस बात के लिये रखता है । ५ जो निज एक पण ग्रहे रे - छोड़ी सकल परभाव । शुद्धतम ज्ञानादिशु रे एक स्वरूपे भाव रे प्रा० ॥६॥ भावार्थ – यदि तू सारे परभावों को छोडकर अपना एकत्व भाव ग्रहण करले तो तू ज्ञानादि से एकस्वरूप याने अभिन्न हैं ऐसी ज्ञानादि गुण सम्पन्न शुद्धात्मा की भावना कर -६. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132