Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 106
________________ प्रभंजना नी सज्झाय ८७ महाराज का पद पालिया। बाकी रहे हुए जो बातो कर्म हैं, उनका उदय रहते हुये भी अबंकाल है । अर्थात् मोहनीय कर्म के नाश होने के पश्चात् कर्मो का बंध नहीं पड़ता। यद्यपि केवलियों के ई-पथिक कर्म का बंध बतलाया है, परंतु पहले समय में बंध और दूसरे समय में निर्जरा होने से उसे अबंध ही कहा है ॥८॥ सयोगी केवली थया प्रभंजना, लोकालोक जणायो । तीन काल नी त्रिविध वर्णना, एक समे ओलखायो रे ।अनुः । ___ भावार्थ-कुमारो प्रभंजना अब सयोगो केवली बन गई। जिससे लोक और अलोक का समग्न स्वरूप प्रत्यक्ष हो गया । तीनकाल अर्थात् अतीत अनागत और वर्तमान की तीन प्रकार की प्रवृति अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को एक ही समय में ओलख लिया। ऐसा कोई भाव अवशिष्ट नहीं रहा जो केवलज्ञानोपयोग से नहीं जाना गया हो ॥६॥ सर्व साधविये वंदना कीधी, गुणी विनय उपजायो । देव देवी तव स्तुवे गुणस्तुति, जगजय पडह वजायो रे।अनु१०॥ ____भावार्थ-पूर्व परंपरागत क्रम के अनुसार देवों ने जब प्रभंजना केवली को साधुवेष दे दिया तब सारी साध्वियों ने उन्हें वंदना को । यद्यपि ये साध्वियाँ दीक्षा पर्याय की दृष्टि से बड़ो थी परंतु केवली का पद साधुपद से बड़ा है अतः इन्होंने वंदना करके गुणी का विनय किया कहा जायेगा। उसी क्षण देव और देवियों ने भी केवलज्ञान का महोत्सव मनाते हुये प्रभजना केवली के गुणों की स्तवना की। यहो जगत में जीत का पडह बजाया कहा जाता है ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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