Book Title: Panch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

View full book text
Previous | Next

Page 124
________________ ॥ श्री समकितनी सज्झाय ॥ समकित नवि लह्योरे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहे, सथावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो, तीन काल सामायिक करतां, शुद्ध उपयोग न साध्यो, स० १ जूठ बोलवाको व्रत लोनो, चोरी को पण त्यागी, व्यवहारादिक महा निपुण भयो, पण अंतरदृष्टि न जागी स० २ उर्ध्व बाहु करी उधो लटके, भस्म लगाइ धूम घटके, जटा जुट शिर मुंडे जूठो विण श्रद्धा भव भटके, स० ३ निज परनारी त्यागज करके, ब्रह्मचारी व्रत लीनो, स्वर्गादिक याको फल पामी, निज कारज नवि सिध्यो स०४ बाह्य क्रिया सब त्यागि परिग्रह, द्रव्य लिंग धरि लीनो, देवचंद कहे या विध तो हम, बहुत वार कर लीनो, स०५ गजसुकुमाल मुनीश्वर सज्झाय ॥ ढाल (१) ॥ आस फली मेरी आस भली ॥ ए देशी ॥ द्वारिका नगरी ऋद्धि समृद्ध, कृष्णनरेश्वर भुवन प्रसिद्ध, चेतन सांभलो (ए टेक) वसुदेव देवकी अंग सुजात, गजसुकुमालकुमर विख्यात चे० १ नयरी परिसरें श्रीजिनराय समवसर्या निरमम निर्माय, यादव कुल अवतंस मुणिंद, नेमिनाथ केवल गुण वृंद, चे० २ Jain Educationa International • For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132