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( ८९ ) नासा अग्रभाग ग धरी,
अथवा दोउ संपुट करी। हिये कमल नवपद जे ध्यावे,
ताकुं सहज ध्यानगति आवे ॥१०३॥ माया बीज-प्रणव धरी आद,
वरण बीज गुण जाणे नाद । चढता वरण करे थिर स्वास,
लख धुर नादतणो परकास ॥१०४॥ प्राणायाम ध्यान विस्तार,
कहेतां सुरगुरु न लहे पार । तातें नाम मात्र ए कह्या,
गुरु मुख जाण अधिक जे रह्या ॥१०५।। प्राणायाम भूमि दस जाणो, - प्रथम स्वरोदय तिहां पिछाणो । स्वर परकाश प्रथम जे जाणे,
पंच तत्व फुनि तिहां पिछाणे ॥१०६॥ कई अधिक अब तास विचार,
सुणो अधिक चित्त थिरता धार ।